दिल है कि मानता नही ।
इन दिनों , मैं हिंदी भाषी क्षेत्र में नही रहता हूँ, इसके बावजूद कोई साहित्य का विशेषांक 17 साल बाद आये तो कैसे भी करके उसको हासिल कर ही लेता हूँ । इंडिया टुडे के शुरू के कुछ विशेषांक , किसी कबाड़ी वाले के ठेले से खरीदे थे , शायद अभी भी पैतृक घर के किसी कोने में पड़े हो । उन दिनों जब मैं ट्यूशन पढ़ाया करता था तो कबाड़ी वाले के ठेले अक्सर मेरे लिए काफी रूचि का विषय होते थे कई बार उनके कुछ पुरानी खाली डायरी, नावेल, सरिता, कादम्बनी आदि के अंक किलो के हिसाब से खरीद लेता था । घर में कुछ रहा हो या न रहा हो जब से मैं बड़ा हुआ किताबों का भण्डार लगा रहा तमाम कॉमिक्स,लुगदी साहित्य और न जाने क्या क्या । अक्सर घरों में दीवाली, होली में साफ सफाई के दौरान पुरानी किताबें कबाड़ समझ कर बेच दी जाती है , आप उनसे बचना , क्योंकि किताबें आपके घर की हैसियत भले न बताये पर आपके वक्तित्व का पता जरूर बताती है ।
आशीष, उन्नाव ।
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