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बुधवार, 10 जुलाई 2013

लघु कथाः गिरगिट

लघु कथाः गिरगिट
आशीष कुमार

गिरगिट आमतौर पर पेड़ों या झाडि़यों पर नजर आता है, पर उस दिन सिंह साहब के लाॅन में जाने कहाॅ से आ गया था। उस समय सिंह साहब लाॅन में बैठकर एक गभ्भीर समस्या पर विचार कर रहे थे। सुबह पत्नी का नर्सिंग होम से फोन आया था, कह रही थी ‘‘ जाॅच करा ली है। इस बार भी लड़की है, अबार्सन करवा लें क्या?‘‘ पूछा था। दो लड़की पहले से ही हैं और अब फिर ! समस्या वाकई गम्भीर थी। इतने बड़े शहर के एस.पी. रहते सिंह साहब का कितने ही अपराधियों से सामना हुआ था, कभी परेशान नहीं हुए। आज पसीना आ रहा था।

अरे ! सिंह साहब चैंक गये, गिरगिट यहाॅं कहाॅं से आ गया? अजीब होता है यह! कभी इस रंग में कभी उस रंग में! सिंह साहब ने गिरगिट को भगाना चाहा पर जाने क्या सोचकर रूक गये। शायद वह गिरगिट को रंग बदलते देखना चाह रहे थे।

  पर वह समस्या़...........! वैसे जहाॅं दो लड़कियाॅ हैं वहाॅं एक और सही। यॅू भी आजकल लड़का लड़की में भेद कहॅ रहा। भ्रूणहत्या होगी तो पाप भी सिर पर आयेगा। पर .....लड़के की बात ही कुछ और होती है।

अरे! गिरगिट ने वाकई रंग बदल लिया था। सिंह साहब गिरगिट को हरी घास के रंग में देखकर चकित हो गये। किस फिराक में है यह! पास में जरूर कोई शिकार होगा।

सिंह साहब ने पुनः सोचा-आजकल लड़की को पालना पोसना कितना कठिन हो गया है। सबसे कठिन शादी करना। कंगाल हो जाउॅगा मैं दहेज चुकाते चुकाते।सिंह साहब ने सिगरेट ऐश ट्रे  में कुचल दी।

गिरगिट ये किस रंग में हो गया है कुछ लाल पर पीलापन लिये। अरे हाॅ पास में ही तो वह झींगुर है।शायद उसे ही खायेगा.... । सिंह साहब ने उठकर गिरगिट को कुचल देना चाहा। पर.......छोड़ो भी, खाने दो। सभी खाते हैं, इस बेचारे का तो भोजन है। सिंह साहब पुनः कुर्सी पर बैठ गये।

......आजकल तो बेटा होना ही सबसे बड़ी सम्पत्ति है। लड़का होना तो आजकल स्टेटस सिम्बल भी बन चुका है। कितनी आशा थी मिसेज सिंह को। इस बार जरूर लड़का होगा। कितनी ही बार कह चुकी थी। गिरगिट ने अपनी करीब एक फुट लम्बी जीभ निकालकर झींगुर को निगल लिया। सिंह साहब ने यह भी देखा। जाने क्या सोचा। तभी मोबाइल की रिंगटोन बज उठी।

मिसेज सिंह कह रही थी-‘‘ अबार्शन करा लिया।‘‘ सिंह साहब प्रसन्न हो गये। पत्नी ने समाजशास्त्र में पी.एच.डी. की है। इस बात का अहसास आज वास्तव में हो रहा था।

(अविराम त्रैमासिक में प्रकाशित) 
©Asheesh Kumar

शुक्रवार, 21 जून 2013

संत और बेरोजगार

               बहुत रोज से कुछ लिखना चाह रहा था पर लिख न पा रहा हॅू क्योंकि अब चिंतन मनन के लिये समय न मिल पाता है। कुछ पुरानी प्रकाशित रचनाओं को ही सोचा डिजटिल रूप में एकत्र कर लूॅ।इसी कडी़ में एक लघु कथा प्रस्तुत है। यह दैनिक जागरण में 2003 में प्रकाशित है। वर्ष 2008 में दैनिक जागरण की साहित्यिक वार्षिकी ’पुनर्नवा’ में इसका पुर्नप्रकाशन हुआ है।

लघु कथा :संत और बेरोजगार 

             विजय जी बेरोजगार थे। अविवाहित थे। आयु चालीस पार कर चुकी थी। इस पर वह बहुत सनकी थे। एक महफिल में किसी से उलझ गऐ। ज्यादातर लोग विजय जी की बात स्वीकार कर लेते थे पर वह न माना। वह भी बेरोजगार था। तर्क पर तर्क करता चला गया। विजय जी को अपशब्द भी कहना शुरू कर दिया। आखिरकार विजय जी ही शान्त हो गये। वह भी लड़-झगड़ कर महफिल से चला गया। उसके जाने के बाद विजय जी अपने रंग में आ गए। उसे पीठ पीछे जमकर कोसा। अन्य लोगों से कहने लगे मुझ जैसे संत को गाली दी है, इसकी या इसके परिवार में कोई मौत के करीब है। उस बेरोजगार को विजय जी की बातें जाननें को मिल गयी पर वापस उलझनेे नहीं आया।

महीने भर बाद बेरोजगार के अध्यापक पिता मर गए, दिल का दौरा पड़ा था। बेरोजगार खुश था क्योंकि उसे अपने पिता की जगह नौकरी मिल गई थी। नौकरी मिलते ही बेरोजगार सभ्य हो गया। विजय जी के अहसान को बेरोजगार ने भुलाया नहीं। उसकी कोशिशों से विजय जी कोसने वाले संत के रूप में विख्यात हो गए। 

©आशीष कुमार

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