दिवास्वप्न : गिजुभाई का एक नावेल
पिछले कुछ दिनों से गिजुभाई का प्रसिद्ध नावेल दिवास्वप्न पढ़ रहा था। वैसे गिजुभाई का नाम शायद आपके लिए नया हो। मैंने भी इनके बारे काफी देर से जाना। ये गुजरात के प्रसद्धि शिक्षाविद थे। इन्होने ने शिक्षण पर बहुत सुंदर पुस्तकें लिखे है। इनका जोर प्राथमिक शिक्षा में अमूल चूल बदलाव पर था। यह खेल के जरिये शिक्षा देने पर जोर देते थे। रटने पर जोर देने के बजाय , बच्चों को खेल के जरिये सरल तरीके से ज्ञान देने पर जोर था। गाकर , अभिनय , चित्र बनाकर बच्चों को भाषा , व्याकरण , भूगोल आदि विषय को आसानी से बच्चों को सिखाया जा सकता है।
दिवास्वप्न (1932 ) में प्रकाशित हुआ था। इसमें एक शिक्षक लक्ष्मीशंकर एक विद्यालय में अपने अनूठे प्रयोग करते है। वह बच्चो को साफ सफाई , अनुशासन आदि के बारे सरलता से अपने प्रयोगों के जरिये प्रेरित करते है। उनको , अन्य शिक्षक के प्रतिरोध , व्यंग्य आदि का सामना करना पड़ता है पर अंत में वह सफल होते है।
आज के समय में भी गिजुभाई जैसे शिक्षको की जरूरत है। पिछले दिनों , मेरी एक मित्र से बात हुयी उन्होंने बताया कि उनकी ढाई साल की बेटी पढ़ने के लिए स्कूल जाने लगी है। दिल्ली से है वो। कम उम्र में बच्चों को स्कूल भेजने की बात सुनी थी पर इतनी कम उम्र में , मुझे बहुत हैरानी हुयी। उन्होंने बताया की 10000 फ़ीस ली है। मेरे ख्याल से इतने रूपये के अगर बच्चे को खिलौने दे दिए जाय या फिर उसे नई नई जगहों पर घुमा दिया जाय तो बच्चे का मनोरंजन के साथ साथ ज्ञान परिवर्धन भी हो जायेगा। प्लेस्कूल के नाम पर इन दिनों कम उम्र के बच्चों के मन पर बहुत बोझ डाला जाने लगा है। दिवास्वप्न का डिजिटल अंक , इंटरनेट पर मुफ्त उपलब्ध है। इसके न केवल शिक्षको वरन अभिवावकों के साथ साथ शिक्षा नीति निर्माण से जुड़े लोगों को जरूर पढ़ना चाहिए।
आशीष कुमार
उन्नाव , उत्तर प्रदेश।