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शुक्रवार, 20 जून 2025

महुवे का पेड़

महुवे का पेड़

आशीष कुमार

तमाम बार उस रात की याद आयी , तमाम बार दिल किया लिखुँ उस रात के बारे में पर आलस में लिख न पाया। कल रात "कोहरे में कैद रंग" उपन्यास पढ़ रहा था। शुरू के पन्नों में ही जो घटना थी , जहाँ लड़के को उसका पिता कस्बे जाने के लिए अकेले आधे रास्ते में छोड़ देता है और लड़का शव यात्रा को देख डर सा जाता है। मुझे फिर से वहीं महुवे के पेड़ के नीचे गुजारी एक सर्द  रात याद आ गयी।  

मेरे गांव के पास एक क़स्बा है पुरवा , वहाँ से नहर गुजरती है। उसी नहर से एक छोटी नहर मेरे गांव के पास से गुजरती है। इस छोटी नहर से छोटी छोटी नाली निकली थी। जिनसे मेरे खेतों तक पानी आता था। खेतों में पानी लगाना भी उन दिनों काफी बड़ा काम हुआ करता था। तमाम लोग दिन में लगा लेते थे , कुछ लोगो को रात में बारी मिलती थी। एक शाम खेतों में मैं , मम्मी और पापा थे। पता चला कि आज रात में अपने खेतों में पानी लगेगा। कुछ सूखी लकड़ियाँ, पुवाल आदि  महुवे के पेड़ के नीचे डाल दी गयी. उसके बाद हम सब घर चले गए।  

वो सर्दी की एक अँधेरी रात थी। मैं , पापा के साथ घर से कुछ खाना लेकर खेतों की ओर चला। मुझे ठीक से याद नहीं पर उम्र 6 - 7 साल ही रही होगी। मैंने एक लाठी ले रखी थी , अपने चारो तरफ कम्बल लपेट रखा था जो बार बार  जमीन में घिसट रहा था. एक हाथ में स्टील वाला तीन खाने का टिफिन भी था। पापा के पास वो तीन सेल वाली एक टॉर्च थी. हम बात करते चले जा रहे थे। बातें हमारी घूम फिर कर कुछ निश्चित विषयों पर होती थी। पिता जी के अपने परिवार और उनके रिश्तेदारों ने उनका बहुत कभी कोई सहयोग या  सम्मान न किया। उन्ही दिनों से सोचा करता था कि बड़ा होकर उन सबसे बदला लूंगा।  

महुवे के पेड़ के पास पहुँच कर लकड़ी जला दी गयी। सर्दी काफी बढ़ गयी थी। चारों ओर घना अँधेरा था। पिता जी ने नाली में जाकर पानी का बहाव देखा। पानी में कुछ पत्ते या घास तोड़ के डाल कर देखा तो पता चला पानी कम आ रहा है। दरअसल नाली के ऊपरी हिस्से में दूसरे किसान भी भी पानी काट लेते थे , कई बार इधर का बहाव ही बंद कर देते थे। उन दिनों खेतों में पानी लगाने को लेकर लड़ाई हो जाया करती थी। पिता जी ने बोला मैं आगे तक जाकर आता हूँ। मुझे वहीं महुवे के पेड़ के नीचे रुके रहने को बोला। वो चले गए। मैं अकेला वहीं रुका रहा। कुछ देर तक आग जलती रही फिर वो मंद पड़ती गयी। 




पिता जी को गए काफी देर हो गयी। अँधेरा काफी था। मुझे डर लग रहा था। एक उम्मीद में कि थोड़ा आगे ही पिता जी होंगे मैं कुछ दूर आगे तक गया। आवाज भी लगाई पर बदले में पिता जी की कोई आवाज न आयी. मैं परेशान था कि कम से कम महुवे के पेड़ के नीचे कुछ हद तक सुरक्षित था। जगह क्यू ही छोड़ी। जब मैं परेशान , डरा हुआ वापस लौट रहा था , मुझे लगा कोई मेरा  पीछा कर रहा है. मैं जैसे तैसे महुवे के पेड़ के पास पहुँचा। पुवाल में कंबल ओढ़ के रोता हुआ सो गया। मुझे पता नहीं कब पिता जी लौटे और कब सुबह हुयी।  

वो महुवे का पेड़ सूख गया। उसके कटने के बाद वहां काफी जगह निकल आयी। आज जब खेत जाना होता है तो कार खड़ी व मोड़ने  की जगह वही है। चीजें बहुत बदल गयी है। बड़े वाले बोरवेल हो गए है। अपने साथ साथ पड़ोसियों का भी भला हो रहा है।  

 पिता जी असमय 2010 में चले गए। चीजे बदलना बस  उसी  वक़्त शुरू हुयी थी। 2010 में पहली सरकारी नौकरी लगी थी। मन में कसक सी रहती है कि उन्होंने अपने बदले हुए दिन ज्यादा न देख पाए। उनके संघर्षो के जिम्मेदार लोगों से बदला लेने के मेरे पास दो रास्ते थे एक हिंसक , दूसरा उन्हें सामाजिक आर्थिक तौर पर इतना पीछे छोड़ देना कि जब भी सामने पड़े तो खुद ही नजरे न मिला पाएं। मैंने दूसरा रास्ता चुना।  कहते है समय के साथ लोगों को माफ़ कर देना चाहिए, तमाम बार सोचा कि सब भूल जाऊ और शायद काफी हद तक भूल भी चूका हूँ पर तमाम बार करीबी रिश्तेदार , पारिवारिक लोगों को ये समझ न आता है कि मै इतना रिज़र्व क्यू रहता हूँ। वजह उपर वर्णित कुछ ऐसी ही यादें है , जो गाहे , बगाहे याद आ जाती है। 

©- आशीष कुमार , उन्नाव।  

20 जून 2025 









 

रविवार, 7 अप्रैल 2019

Apana time ayega..

जिनको अभी भी और संघर्ष करना है

तमाम सफल लोगों के बीच उन लोगों भी याद करना लाजमी है जो लगातार संघर्ष करने के लिए बाध्य हैं या कहे कि अभिशप्त से हो गए हैं ।

इस बार जब से सिविल सेवा का रिजल्ट आना था , तब से मन मे बार 2 आ रहा था कि यार इस बार उन दोनों का जरूर हो जाय। दो लोग है, हिंदी माध्यम से। नाम नहीं लिख रहा हूँ पर लगभग उनको बहुतायत लोग जान ही जायेंगे । दोनों लोग राजस्थान से है।

पहले मित्र jnu से है, इतिहास विषय से देते है। शायद उनका 5 या 6 लगातार इंटरव्यू था पर न हुआ। पिछले साल 1 या 2 अंको से चयन रह गया था।

दूसरे साथी काफी अच्छे लेखक है, दैनिक जागरण, दैनिक भाष्कर आदि तमाम पेपर में उनके लेख आते रहते हैं।शायद भूगोल विषय है उनका। पहले दिल्ली में थे अब जयपुर में शिफ्ट हो गए हैं। उनका लगातार तीसरा इंटरव्यू था।

जिस दिन रिजल्ट आया , उनका दोनों के नाम एक मित्र से सर्च करवाया पर दोनों का ही न हुआ। सबसे खलने वाली बात यह है कि दोनों अभी किसी वैकल्पिक करियर को न बना सके है, इसलिए उन पर तमाम तरह के दबाव भी। अभी बात करने की हिम्मत न हुई उनसे। मुझसे बहुत ज्यादा गहरे , अंतरंग संबंध भी न है। बाद वाले साथी से कभी मिलना भी न हुआ, jnu वाले मित्र भी एक आध बार इंटरव्यू के दौरान  upsc परिसर में भेट हुई है पर दोनों संर्घष के चलते अपने से लगते है।

मित्रों हो सकता है कि आप इस पोस्ट को पढ़े या कोई आप तक इसे पहुँचा दे। अब आप लोग उस स्तर पर है कि ज्यादा कुछ कहने या समझाने का अर्थ नही बचता। बस समय का फेर है, यह बस हिंदी माध्यम का बुरा दौर है। अभी आप दोंनो के प्रयास बचे है , अंतिम प्रयास में भी सफ़लता मिलती है, इसलिए एक और प्रयास सही। गुनगुनाते हुए लगिये- अपना टाइम आएगा ।

- आशीष कुमार
उन्नाव, उत्तर प्रदेश।

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