महाभोज
- 1979 में मन्नू भंडारी द्वारा रचित ,
- रचनाकार ने अपने परिवेश के प्रति ऋण शोध के तौर पर लिखा है -
- " घर में जब आग लगी तो। …… " उस समय के समाज -राष्ट का स्पष्ट चित्र खीचने की आकांक्षा
- POLITICS , अपराध , MEDIA , POLICE की साठ -गाठ से किस तरह से लोकत्रांतिक मूल्य विघटित हुए है इसका सटीक वर्णन।
- " महाभोज " का अर्थ किसी की मौत पर दिए गए भोज से होता है। इस NOVEL में बिसू नामक दलित की मौत होती है।
- पर महाभोज उसकी मौत का न होकर , आजादी के बाद लोकत्रांत्रिक मूल्य , SOCIAL VALUE के विघटन का है।
- INDIAN POLITICS का नग्न यथार्थ , राजनीति में जाति महत्व ,
- राजनीति में अवसरवादिता ( राव , चौधरी ) , ELECTION में धन -बल का प्रयोग ( घरेलू कार्य योजना , सुकुल बाबू की बाद वाली सभा में रूपये और खाने के नाम पर भीड़ जुटाना ) , अयोग्य उम्मीदवार ( लखन ), पुलिसिया रॉब ( थानेदार ) , बयान लेने का दिखावा ( सक्सेना ) , मीडिया का बिकना ( मशाल के सम्पादक दत्ता बाबू ) , बुद्धिजीवी वर्ग की निष्क्रियता ( महेश बाबू ), दलित चेतना ( बिसू , बिंदा ) , शोषक वर्ग ( जोरावर सिंह ) , परजीवी वर्ग ( बिहारी भाई , काशी , पांडे जी ), पदलोलुप नौकरशाह ( सिन्हा ) , विपक्ष की स्वार्थपूर्ण नीति ( सुकुल ) , ईमानदार राजनीति करने वाले का कोई मूल्य नही ( लोचन बाबू ) , सत्ता दल में की शक्ति एक व्यक्ति में , गैर लोकत्रांत्रिक ( दा साहब ) ,
- संवाद बेहद चुस्त , चरम नाटकीयता की व्याप्ति , उचित गति में NOVEL आगे बढ़ता है।
- यथार्थ के चित्र होने के चलते नावेल में नकारात्मकता ज्यादा जगह दिखती है , इसके बावजूद , सक्सेना के माध्यम से एक आशा अभी जी जीवित है। " अग्निलीक जो बिसू , बिंदा के बाद खत्म नही होती वरन सक्सेना में समा जाती है।
- लेखिका ने उन चिरकालिक मुद्दों को उठाया है जिससे नावेल की प्रासंगिकता सदैव बनी रहेगी।
- " सरोहा " गावं पर शहर से नियंत्रित
- "मशाल" , गोदान के " बिजली " से तुलनीय
- लोचन बाबू , मैला आंचल के " बावनदास " से तुलनीय , दोनों ही आदर्शवादी पर मुख्य धारा से परित्यक्त
- गोदान के " राय साहब " मैला आंचल के " विश्वनाथ " और महाभोज के " जोरावर सिंह " में समता , तीनो ही जनता का शोषण कर रहे है बस स्वरूप अलग अलग है।
- हरिजनों को जलाये जाना का इशारा , नागार्जुन ने भी ऐसी ही INCIDENT पर " हरिजन गाथा " लिखते है।