BOOKS

रविवार, 29 मार्च 2020

Reading Tips

पढ़ाई से जुड़े कुछ सूत्र 

काफी समय से इस विषय पर लिखा नहीं हैं, पिछले दिनों कुछ लोगों से बातचीत के आधार पर लगा कि कुछ अपने अनुभव साझा किए जाय। रही बात वायरस की तो उस पर इतना ज्ञान साझा हो चुका है हम अदने लोग क्या ही बोले। बस एक बात याद रखना कि आप जो कॉपी पेस्ट, फॉरवर्ड करने जा रहे है वो जरूरी नहीं सत्य ही हो। आइये उन चीजों पर बात करते है जो एक विद्यार्थी को हमेशा याद रखनी चाहिए -

1. अपने लक्ष्यों को स्पष्ट रूप में जाने, अगर आपको जिंदगी में करना क्या है यह अगर चीज समझ में आ गयी तो जीवन सरल, आसान व सुखद हो जाएगा।

2. अपने लक्ष्यों की समयसीमा तय करके रखे। क्या आपने इस पर विचार किया है कि हम बस पढ़ते चले जा रहे हैं पर कब तक ? आप अपने लक्ष्य की समय सीमा तय कर ले, इससे आप पर लक्ष्य को समय से पूरा करने का दबाव पड़ेगा।

3. आप अपने कोर्स से इतर विषयों पर भी किताबें पढ़ते रहें। किताबें पढ़ने की आदत, आपको हमेशा आगे रखेगी। 

4. तेजी से पढ़ने की आदत विकसित करें। यह एक ऐसी बात है जो ज्यादातर लोगों को पता नहीं होती है। तमाम लोगों से बात करने के आधार पर यह समझ आया है कि बहुधा लोग, किताब खोल कर बैठ जाते हैं पर उनका मन वहाँ पर नहीं होता है। इसके चलते कई बार वो कई घंटे बाद भी पहला पन्ना भी खत्म नहीं कर पाते हैं।

5.  तेजी से पढ़ना सीखने के लिए आपको गैर जरूरी चीजें  स्किप करना सीखना होगा। अपने कभी गौर किया है कि हर वाक्य, पैराग्राफ व कई बार पूरे पन्ने में गैरजरूरी चीजें होती हैं। आप मतलब की चीजें , निकलना सीख जाए तो आपके पढ़ने की गति बहुत तेज हो जाएगी। 

6. रुचि जगाये । अपने देखा होगा कि कई बार कॉमिक्स, नॉवेल जैसी चीजें पढ़ने में कभी न थकान होती है न ही बोरियत। इसकी वजह रुचि का होना होता है। इसलिए आपको पूरी रुचि के साथ किताबें में डूब कर पढ़ना चाहिए।

5. पिछले दिनों मैंने रॉबिन शर्मा की एक किताब The monk who sold his ferrari पढ़ी. इसके बारे में पहले सुना था पर लगा कि फालतू किताब होगी कोई योगी, अध्यात्म से जुड़ी, इसलिए कभी पढ़ने की कोशिस नहीं । पर अब पढ़कर लगा कि इस किताब को जितनी जल्दी हो, सबको पढ़ना चाहिए। इसमें बहुत सरल तरीके से अपने लक्ष्यों को पूरा करने, सच्ची सफलता के बारे में बात की गई है। गूगल में पीडीएफ मिल जाएगी, सर्च करके जरूर पढ़िए।

कुछ और भी बढ़िया किताबें पढ़ी जा रही है, इसलिए आगे भी कुछ ऐसी पोस्टों की उम्मीद के साथ विदा 😊

© आशीष कुमार, उन्नाव
30 मार्च, 2020।


गुरुवार, 19 मार्च 2020

My introduction with libraries

दो शब्द पुस्तकालयों के संदर्भ में 

पुस्तकालय से पहला परिचय मौरावां में हुआ, मेरे इंग्लिश की कोचिंग वाले रितेश सर ( गुड्डू भैया ) ने मुझे वहाँ की सदस्यता दिलवा दी। शायद 50 रुपए सदस्यता शुल्क था। बात कक्षा 11 की थी। इसके पहले गांव में यहाँ वहां से इधर उधर की किताबें जुटा कर पढ़ा करता था जिसमें प्रायः  मेरठ से छपने वाले सस्ते उपन्यास हुआ करते थे। वेद प्रकाश, ओम प्रकाश, रीता भारती, गुलशन नंदा आदि आदि। गांव में ये किताबे कौन लेता पता न चलता पर आदान प्रदान के जरिये पूरा गांव पढ़ा करता था। गर्मी की दोपहरी में दुछत्ती पर चारपाई में लेटकर पढ़ने का सुख, रात में चोरी से किरोसिन के दीपक में इन प्रेम, रहस्य, रोमांच, अपराध, मार धाड़ से लबरेज किताबों में डूबने के सुख को वही समझ सकते है जो इसे भोग चुके हैं।

मौरावां में भैया ने सदस्य बनवाने के साथ तमाम किताबे सुझाई जिनमें मंटो, शरत चन्द , इस्मत चुगताई जैसे कुछ नाम याद आते हैं। दो साल उस कस्बे में रहा और मेरे ख्याल से 200 से 250 किताबें पढ़ी होंगी। पिता जी ने पहले डॉट लगाई थी फिर बाद में वो भी मेरे कार्ड पर किताबें निकलवाने लगे, कई शाम हम दोनों किसी मोटी किताब लिए अपने अपने में डूबे रहते। इसका परिणाम मेरे 12वी के अंकों पर पड़ा, गणित में बस 100 में बस 37 अंक। खैर इससे फर्क क्या पड़ता था, पिता जी इसमें खुश थे कि पास हो गए यही क्या कम है।

इसके बाद उन्नाव के जिला मुख्यालय में स्नातक के लिए जाकर रहना शुरू हुआ। वहाँ जिला पुस्तकालय में सदयस्ता लेने के लिए बड़ी जहमत उठानी पड़ी,तमाम चीज़ो के साथ कचहरी से एफिडेविट भी मांगा गया। मुझे पढ़ने का इतना नशा कि उसी दिन दौड़ भाग कर सारी खाना पूर्ति की। शाम तक दो किताबें मेरे हाथ में थी, सोचो कौन सी ? देवकीनंदन खत्री कृत चंद्रकांता के दो भाग। वहां के तमाम किस्से , अलग अलग टुकड़ो में पहले लिख चुका हूँ। एक कार्ड पर दो किताबें निकलती थी, बाद में मैंने अपने दो कार्ड बनवा लिए और ताबड़ तोड़ ( सच में ) किताबें पढ़ी, शायद 300 से 400 के बीच।

उन्नाव में एक गांधी पुस्तकालय भी है जो शाम व सुबह के समय ही खुलता है शिवाय सिनेमा के पास। बाद में यह मेरे लिए ज्यादा अनुकूल पढ़ने लगा। शाम को ट्यूशन पढ़ाकर लौटते वक्त अपनी साइकिल वही रुकती और पुस्तकालय बन्द होने तक वही रहता। मेरी साईकल के हैंडल पर एक कैरियर लगा होता जो विशेषतौर पर इन्हीं किताबों के लिए लगवाया गया था। यहाँ भी दो कार्ड बने 200 से 300 किताबें पढ़ी गयी। बाद में कार्ड भाईयों को दे दिया और वो निकलवा कर पढ़ते रहे।

फिर अहमदाबाद में अलग अलग जगहों पर पुस्तकालय गया। मेमनगर वाली सरकारी लाइब्रेरी,शुभ लाइब्रेरी, स्पीपा की लाइब्रेरी, विवेकानंद लाइब्रेरी, राणिप, और आखिरी वो जहां से आखिरी अटेम्प्ट देना हुआ। यहाँ पर साहित्य की एक भी किताब न पढ़ना हुआ। सब में अपनी किताबें ले जाकर पढ़ना होता था। 2012 से 2019 तक अहमदाबाद के पुस्तकालयों में सिविल सेवा की ही किताबें पढ़ी गयी।

इसके बाद दिल्ली आना हुआ,  मेरी अकादमी का सरदार पटेल नाम से एक समद्ध पुस्तकालय हैं।यहाँ फिर से साहित्य पढ़ना शुरू हुआ। अब अपनी मन की किताबें यहाँ बोल कर ख़रीदवाई जा सकती थी। कुछ महत्वपूर्ण किताबे जो पढ़ने से रह गई, वो लिस्ट बना कर दे दिया। सब खरीदी गई। जब भी उधर जाना होता, इंचार्ज बोलते कि पढ़ तो बस आप ही रहे हो। अब मोटे उपन्यास की जगह पत्रिकाओं ने जगह ले ली, शायद समयाभाव।

इस लंबे चौड़े अतीत लेखन का उद्देश्य पोर्ट ब्लेयर के अनुभव को लिखना मात्र था।दरअसल अभी तक सभी पुस्तकालयों में किताबें लेने के लिए तमाम ताम झाम , मगजमारी करनी पड़ती थी। पोर्ट ब्लेयर में समय कट न रहा था। नेट स्पीड की मध्यम गति से परेशान , समय काटे न कटे। पुस्तकालय का ख्याल आया पर लगा कि मेंबर बनना काफी तामझाम रहेगा। 

खैर एक रोज पहुँच गए, परिचय दिया। इतना काफी था बड़ी गर्म जोशी के साथ स्वागत और यह छूट कि आप को जो भी, जितनी भी किताबें पढ़नी है निकलवा लीजिए। "आप लोगों के लिए अलग रजिस्टर है  नाम व मोबाइल no दे दीजिए बस" 
ऐसे समय में अपने पद व उसके साथ मिलने वाले इस तरह के विशेषाधिकार बड़े सुखद अनुभूति देते हैं, कहाँ तो वो दिन कि जब 2 किताबें के लिए दुनिया भर की कागजी कार्यवाही और अब ये दिन।

ऊपर दूसरे फ्लोर पर किताबें तलाश रहा था और साथ आया बन्दा, वहाँ बैठी सहायक को निर्देश देकर गया कि साहब की चुनी किताबें, लेकर नीचे साथ आना। यद्यपि मैंने उस सहायक को विनम्रतापूर्वक  अपनी किताबें उठाने से मना कर दिया तथापि पोर्ट ब्लेयर के मुख्य पुस्तकालय के कर्मचारियों की गर्मजोशी सदैव के लिए मानस पटल पर अंकित हो गयी।

© आशीष कुमार, उन्नाव 
दिनांक 19 मार्च, 2020
(हैडो, पोर्ट ब्लेयर)


शनिवार, 7 मार्च 2020

NO AGE LIMIT

"न उम्र की सीमा हो "

लिखने वाले के लिए यह जरूरी नहीं वो हमेशा अपने ही अनुभव लिखे। पिछले दिनों मुझे दूसरों के जरिये कुछ बड़े गजब के अनुभव सुनने को मिले, उन्हीं में से यह एक ..

तमाम लोगों को काम करने का इतना गहरा चस्का होता है या कुछ और ..जिस उम्र में शांति से घर में आराम करना चाहिए वो हिलते डुलते काम में लगे रहते हैं। मैं बात सरकारी सेवा की कर रहा हूँ। एक अकादमी में एक साहब   पढ़ाने आते थे। बहुत ज्यादा ही योग्य, जितनी हमारी उम्र उससे दोगुना उनका अनुभव । कितनी ही किताबें प्रकाशित हो चुकी थी। जब वो पढ़ाते तो खड़े खड़े काँपने लगते। थोड़ी में उनकी साँसे फूलने लगती,बेचारे बड़ी ही मेहनत से पढ़ाते अब यह अलग बात है कि साहब 15 क्लास में 5 पन्ने की भी विषयवस्तु न पढ़ाई होगी। वो खुद बताया करते कि उनके बच्चे मना करते है कि अब आप पढ़ाने न जाया करिये, मैं खुद न मानता हूँ। इस बीच क्लास में पीछे से आवाज आती कि हां हम लोग तो फालतू हैं, जाहिर है साहब के जर्जर हो चूके कानों  तक ये मजाक न पहुँच पाता।

खैर आज एक बहुत ही बड़े साहब की कहानी बतानी है। साहब इतने बड़े इतने बड़े हैं कि पुछो ही मत और उनकी अवस्था क्या हो चुकी है वो आप आगे पढ़ने जा रहे हैं।

जिनके मुख से मैंने यह घटना सुनी वो साथी भी सिविल सेवक हैं। मित्र का प्रशिक्षण चल रहा था। उन्हें पता चला कि बड़े वाले साहब का उनके क्षेत्र में दौरा है, साथी , साथी के बॉस सब लोग आनन फानन में क्षेत्र पहुँच गए। मित्र अपनी गाड़ी से उतर कर, बहुत बड़े वाले साहब के पास पहुँचे। बड़े वाले साहब अपनी कार से उतर ही रहे थे। मित्र ने जाकर अभिवादन किया और बड़े साहब उतर कर खड़े हुए। मित्र ने बड़े साहब से बताया कि सर अपने पिछले वर्ष  मेरे UPSC वाले साक्षात्कार में सदस्य थे, 

अब इसे संयोग कहे या क्या कहे ठीक उसी समय साहब की पैंट उतर ( दरअसल सरक ज्यादा उचित शब्द है) कर नीचे जूतों पर जा टिकी। मजे की बात यह कि साहब को इसका आभास ही नहीं, मित्र को बताना पड़ा कि साहब आपकी पैंट उतर गयी है। इसी बीच उनका सहायक आ गया और बड़े साहब की पैंट में दोनों तरफ से अंगुली फ़साई और कमर में लाकर टिका दी। ( आपको हेराफेरी फ़िल्म के बाबूराव याद आ रहे होंगे, बाबूराव थोड़ा जवान थे कम से कम झुक सकते थे पर ये साहब इस दशा में थे कि झुक भी न सकते थे )

मेरा हँस हँस कर पेट फूल गया और मैंने तिखार तिखारकर (तिखारना एक बैसवाड़ी बोली,अवधी का शब्द है जिसका अर्थ है खोद खोदकर/रस ले लेकर  पूछना ) खूब पूछा, विस्तृत जानकारी ली मसलन कि क्या साहब ने बेल्ट न पहनी थी या तुम्हारे कहते ही कि उन्होंने उसका साक्षात्कार लिया था, उनकी पैंट सरक गयी और उन्होंने आपके बोलने पर क्या बोला था आदि आदि।

हालांकि बड़े साहब की टीम बहुत ही बढ़िया कार्य में लगी है पर आप ही सोचिए ऐसा भी क्या जुनून कि इस अवस्था में कार्य करते रहा जाय। अनुभव व योग्यता कितनी ही अधिक क्यों न हो क्या देश के अन्य लोगों के लिए बड़े साहब को जगह खाली न कर देनी चाहिये। 

( अपनी बात : इन दिनों हम 4g चलाने वाले लोग, भटकते भटकते 2g स्पीड वाली जगह में चले आये हैं, अब तमाम चीजों के साथ हम लिखने पढ़ने वालों लोगों को मन्थर, जर्जर गति के नेट स्पीड से बड़ी दिक्कत हो रही है। रचनात्मकता उछाल मारती जा रही है पर नेट स्पीड है कि उसे दबाये ही जा रही है। तमाम मजेदार अनुभव संग्रह हो गए है, ऊपर वर्णित घटना इस कदर भायी कि लगा इसे पाठकों को कैसे भी हो जरूर पहुँचनी चाहिये।
कहानी सुनाने वाले मित्र बहुत डरे कि लिखना मत, मुझे टैग मत करना, वरना बड़े साहब तक अगर बात गयी तो मेरी पैंट उतरवा देंगे। हमने उन्हें भरोसा दिया कि शरलक होम्स भी आएंगे तो भी जान न पाएंगे कि बड़े साहब कौन थे, बशर्ते आप मुँह न खोले ) 

( उक्त रचना काल्पनिक है, किसी नाम, घटना से इसका कोई लेना देना नहीं है )

© आशीष कुमार, उन्नाव। 
8 मार्च, 2020 ( पोर्ट ब्लेयर से ) 

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