महुवे का पेड़
- आशीष कुमार
तमाम बार उस रात की याद आयी , तमाम बार दिल किया लिखुँ उस रात के बारे में पर आलस में लिख न पाया। कल रात "कोहरे में कैद रंग" उपन्यास पढ़ रहा था। शुरू के पन्नों में ही जो घटना थी , जहाँ लड़के को उसका पिता कस्बे जाने के लिए अकेले आधे रास्ते में छोड़ देता है और लड़का शव यात्रा को देख डर सा जाता है। मुझे फिर से वहीं महुवे के पेड़ के नीचे गुजारी एक सर्द रात याद आ गयी।
मेरे गांव के पास एक क़स्बा है पुरवा , वहाँ से नहर गुजरती है। उसी नहर से एक छोटी नहर मेरे गांव के पास से गुजरती है। इस छोटी नहर से छोटी छोटी नाली निकली थी। जिनसे मेरे खेतों तक पानी आता था। खेतों में पानी लगाना भी उन दिनों काफी बड़ा काम हुआ करता था। तमाम लोग दिन में लगा लेते थे , कुछ लोगो को रात में बारी मिलती थी। एक शाम खेतों में मैं , मम्मी और पापा थे। पता चला कि आज रात में अपने खेतों में पानी लगेगा। कुछ सूखी लकड़ियाँ, पुवाल आदि महुवे के पेड़ के नीचे डाल दी गयी. उसके बाद हम सब घर चले गए।
वो सर्दी की एक अँधेरी रात थी। मैं , पापा के साथ घर से कुछ खाना लेकर खेतों की ओर चला। मुझे ठीक से याद नहीं पर उम्र 6 - 7 साल ही रही होगी। मैंने एक लाठी ले रखी थी , अपने चारो तरफ कम्बल लपेट रखा था जो बार बार जमीन में घिसट रहा था. एक हाथ में स्टील वाला तीन खाने का टिफिन भी था। पापा के पास वो तीन सेल वाली एक टॉर्च थी. हम बात करते चले जा रहे थे। बातें हमारी घूम फिर कर कुछ निश्चित विषयों पर होती थी। पिता जी के अपने परिवार और उनके रिश्तेदारों ने उनका बहुत कभी कोई सहयोग या सम्मान न किया। उन्ही दिनों से सोचा करता था कि बड़ा होकर उन सबसे बदला लूंगा।
महुवे के पेड़ के पास पहुँच कर लकड़ी जला दी गयी। सर्दी काफी बढ़ गयी थी। चारों ओर घना अँधेरा था। पिता जी ने नाली में जाकर पानी का बहाव देखा। पानी में कुछ पत्ते या घास तोड़ के डाल कर देखा तो पता चला पानी कम आ रहा है। दरअसल नाली के ऊपरी हिस्से में दूसरे किसान भी भी पानी काट लेते थे , कई बार इधर का बहाव ही बंद कर देते थे। उन दिनों खेतों में पानी लगाने को लेकर लड़ाई हो जाया करती थी। पिता जी ने बोला मैं आगे तक जाकर आता हूँ। मुझे वहीं महुवे के पेड़ के नीचे रुके रहने को बोला। वो चले गए। मैं अकेला वहीं रुका रहा। कुछ देर तक आग जलती रही फिर वो मंद पड़ती गयी।
पिता जी को गए काफी देर हो गयी। अँधेरा काफी था। मुझे डर लग रहा था। एक उम्मीद में कि थोड़ा आगे ही पिता जी होंगे मैं कुछ दूर आगे तक गया। आवाज भी लगाई पर बदले में पिता जी की कोई आवाज न आयी. मैं परेशान था कि कम से कम महुवे के पेड़ के नीचे कुछ हद तक सुरक्षित था। जगह क्यू ही छोड़ी। जब मैं परेशान , डरा हुआ वापस लौट रहा था , मुझे लगा कोई मेरा पीछा कर रहा है. मैं जैसे तैसे महुवे के पेड़ के पास पहुँचा। पुवाल में कंबल ओढ़ के रोता हुआ सो गया। मुझे पता नहीं कब पिता जी लौटे और कब सुबह हुयी।
वो महुवे का पेड़ सूख गया। उसके कटने के बाद वहां काफी जगह निकल आयी। आज जब खेत जाना होता है तो कार खड़ी व मोड़ने की जगह वही है। चीजें बहुत बदल गयी है। बड़े वाले बोरवेल हो गए है। अपने साथ साथ पड़ोसियों का भी भला हो रहा है।
पिता जी असमय 2010 में चले गए। चीजे बदलना बस उसी वक़्त शुरू हुयी थी। 2010 में पहली सरकारी नौकरी लगी थी। मन में कसक सी रहती है कि उन्होंने अपने बदले हुए दिन ज्यादा न देख पाए। उनके संघर्षो के जिम्मेदार लोगों से बदला लेने के मेरे पास दो रास्ते थे एक हिंसक , दूसरा उन्हें सामाजिक आर्थिक तौर पर इतना पीछे छोड़ देना कि जब भी सामने पड़े तो खुद ही नजरे न मिला पाएं। मैंने दूसरा रास्ता चुना। कहते है समय के साथ लोगों को माफ़ कर देना चाहिए, तमाम बार सोचा कि सब भूल जाऊ और शायद काफी हद तक भूल भी चूका हूँ पर तमाम बार करीबी रिश्तेदार , पारिवारिक लोगों को ये समझ न आता है कि मै इतना रिज़र्व क्यू रहता हूँ। वजह उपर वर्णित कुछ ऐसी ही यादें है , जो गाहे , बगाहे याद आ जाती है।
©- आशीष कुमार , उन्नाव।
20 जून 2025
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