दुक्खम सुक्खम : ममता कालिया का व्यास पुरुस्कार से सम्मानित उपन्यास
274 पेज का यह नावेल वर्ष 2010 में प्रकाशित हुआ था। इसे 27 वा , 2017 का व्यास सम्मान दिया गया है । 9 दिसंबर की पोस्ट में मैंने लिखा था कि इसे पढ़ने वाला हूँ। तब इसे धीरे धीरे पढ़ता रहा और पिछले दिनों इसे खत्म कर लिया। इस नावेल को खरीदने के बजाय हिंदी समय की वेबसाइट पर जा कर इसे पढ़ता रहा। डिज़िटल संस्करण का फायदा था कि इसे आप चाहे जहाँ पढ़ सकते है।
ममता जी के एक साक्षात्कार में मैंने पढ़ा था कि यह नावेल उनके पिता की कहानी है। पुरे नावेल में यह बात जेहन में रही और मैंने निष्कर्ष निकला कि कवि मोहन उनके पिता है और उनकी दो बेटी है। छोटी बेटी के रूप में स्वंय ममता जी ने अपने आप को चित्रित किया है। नावेल के अंतिम पन्नों में काफी बेबाकी से एक किशोर लड़की का चित्र खींचा है। यह उपन्यास दरअसल महात्मा गांधी के महिलाओं पर पड़े प्रभाव की पृष्ठभूमि में लिखा गया.
कथानक वहाँ से शुरु होता है जहाँ कविमोहन , आगरा में रह कर पढ़ाई कर रहा है। आजादी के 20 , 30 पहले से कहानी शुरू होती है। कवि की माँ , पिता , उसकी पत्नी के बारे बताते हुए नावेल आगे बढ़ता है। देखा जाय तो ममता जी का यह नावेल एक परिवार की पूरी कहानी है। हर छोटी -बड़ी घटना है इसमें। कवि की माँ यानि ममता जी की दादी , गाँधी जी के विचारों से बहुत प्रभावित है। वो एक गीत गाया करती थी -
कटी जिंदगानी , कभी दुक्खम , कभी सुखम।
इसी से इस नावेल का शीर्षक लिया गया है। सच में नावेल में सुख और दुःख के विविध प्रसंग है। कहानी वहां खत्म हो जाती है जहां कवी की माँ मर जाती है। कवि की छोटी बेटी यानि ममता अपनी दादी को बहुत याद करती है। मथुरा , आगरा , दिल्ली और पुणे तक यह नावेल फैला है। पुणे में कविमोहन रेडियो में कार्य कर रहे होते है। समग्रतः यह नावेल पठनीय है खास तौर पर आप आराम से , सकून से ज्यादा दिमाग पर जोर न डालते हुए कुछ सरस् पढ़ना चाहते हो तो इसे पढ़ सकते है।
आशीष कुमार
उन्नाव , उत्तर प्रदेश।
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