उन्नाव की कुछ यादें
अतीत बड़ा सम्मोहक होता है। यूँ तो
उन्नाव को छोड़े बरसों बीत गए। पहले अहमदाबाद के दिनों में कानपुर होते हुए घर जाना
होता तो उन्नाव में एक दो रात रुकना हो जाता था। अब जब छुट्टी ही एक दिन की मिलती
है तो सीधा गाँव वाले घर में आराम फरमाना सबसे सुकूनदायक लगता है।
कल शाम एक पार्टी में जाते हुए ,
उन्नाव
की दिनों यादें आने लगी। सबसे पहले याद आयी कचहरी वाली अंजलि स्वीट्स की दुकान ,
उसके
समोसे , खस्ता और आलू की सब्जी। उसके जैसा स्वाद कहीं न मिला। मुझे ऐसा लगता
है व्यक्ति के स्वाद का उसके परिवेश , क्षेत्र का काफी असर होता है। जब कभी
टूशन पढ़ाकर लौटे और भूख लगी तो दो खस्ते खा लिए।
डिमांड इतनी की हर वक़्त , गरमा गर्म मिल जाते थे। उसके बगल में
एक बहुत छोटा सा ढाबा भी हुआ करता था , जिसमे मटर पनीर और तंदूरी रोटी ,
मेरा
हमेशा का आर्डर होता था।
एक दुकान GIC स्कूल के सामने
अंण्डे वाले की थी। जिसका ऑमलेट बहुत डिमांड में रहता , उसकी टमाटर वाली
चटनी के लिए लोग काफी दूर से आते थे। चुकि मै उन दिनों केवटा तालाब में रहा करता
था और अंडे वाले का घर पास में ही था। उसके घर को देख लोग कहा करते थे कि बहुत
पैसे छाप रहा है।
एक पानी के बताशे की दुकान राजकीय
पुस्तकालय के ठीक पास लगती थी , जिसके दही वाले बताशे बहुत डिमांड में
रहते थे। दरअसल एक रिश्तेदार जिन्हे हम लोग काफी बड़े (तथाकथित एलीट ) मानते थे ,
उनको
वह पानी पूरी खाते देखा तो काफी हैरानी हुयी। दरअसल स्ट्रीट फ़ूड लगता था आम लोगों
के लिए ही होता है, उन दिनों पानी के बताशे , दाल फ्राई फालतू चीजें लगती थी। अब
दोनों ही चीजे मेरी पर्सनल fov है।
एक दुकान एग्गरोल वाले की थी नाम शायद सुरुचि एग्गरोल कार्नर था। पहले पहल जब एगरोल खाया मजा आ गया। उसके यहाँ शाम को ही दुकान खुलती थी और बहुत देर रात तक खुली रहती थी। लाइन में लोग अपनी बारी का वेट करते थे। साफ सफाई का वो विशेष ध्यान रखता था। बाद के दिनों में वहां एक अंकल , ने प्रॉपर नॉन वेज का ठेला खोला। उनकी बिरियानी मेरा कई रातों का डिनर बना।
उन्नाव रेलवे स्टेशन के ठीक सामने बस
अड्डे के पास बाबा होटल हुआ करता था जो शाकाहारी भोजन के लिए बहुत अच्छा था। एक
लोहे के जीने से ऊपर चढ़कर जाना पढ़ता था पर यहां भी बहुत भीड़ हुआ करती थी। पुदीने
वाली चटनी और प्याज के साथ गर्म गर्म तंदूरी रोटी और पनीर , बहुत
संतुष्टिदायक होता था।
मनोरंजन स्वीट्स काफी पुरानी दुकान थी ,
मेरे
ख्याल से जोकि उन्नाव के सबसे पहले रेस्टोरेंट में गिनी जा सकती थी। काफी भीड़ होती
थी , कई बार गया भी पर उनकी कोई विशेषता याद न आती है।
एक नॉनवेज की और दुकान आ रही थी जो पेट्रोल टंकी (राजा शंकर स्कूल के सामने ) छोटी दुकान में चलती थी। उसका स्वाद आज भी जुबान पर याद है।
और अंत में जोकि इन सबमे सबसे बाद जुड़ा
- छपरा वाला होटल , कहचरी उन्नाव। इनकी चाय , कचौडी अति डिमांड में रहती। असली स्वाद
चाय का था जोकि शुद्ध दूध , चाय पट्टी को पत्थर वाले कोयले पर बनती
थी। उस चाय शोधापन बहुत मुश्किल से मिलता
है।
अब ये सब दुकानों का अस्तित्व है या
नहीं मुझे पता नहीं। शहर काफी बदल गया होगा। हर दुकान की अपनी एक कहानी बन सकती है
पर कोशिस कि यादों का दबाव कम से कम समय में सब समेट ले। ये कहानी 2003 से
2010 के बीच की है। दरअसल ये अड्डे है जहाँ स्वाद की ललक बार बार ले जाती
थी। बेरोजगारी के दिनों , ये सब लक्ज़री से कम न था। समय के साथ
शहर बदले , लखनऊ , अहमदाबाद से अब दिल्ली पर उन्नाव के सिवा अड्डे जैसे कही और न बन
सके। मुझे ऐसा लगता है हर व्यक्ति जिससे अपना शहर पीछे छूट गया , उनको
भी अपने शहर की ऐसी ही यादें जेहन में आ ही जाती होंगी।
©आशीष कुमार , उन्नाव।
6 May 2024.