दंगल : जो अब नहीं होता
हमारा अतीत कई चीजों से जुड़ा होता है जैसे मौसम। कल यूँ ही शाम को हल्की हल्की ठंड का अहसास हुआ तो अपने गावं का दंगल याद आ गया। कुछ ऐसे ही दिन हुआ करते थे जब गांव में दंगल का आयोजन होता था। ठीक से याद नहीं पर शायद यह 2 अक्टूबर को हुआ करता था। बरसों बीत गए हैं पर उन दिनों की याद अभी ताजा हैं।
मेरा गाँव काफी बड़ा है दरअसल इसमें कई मजरे जुड़े है। दंगल का आयोजन गांव के दूसरे छोर पर होता था। वह मेरे गाँव के लिहाज से थोड़ी ऊंची जगह है। एक तरफ साँचिल बाबा का मंदिर है. यह काफी प्राचीन मंदिर है। एक धर्मशाला है जो तब भी वीरान रहती थी और आज भी वैसी ही है। मंदिर के एक तरफ नौटंकी का मंच बना है।
दूसरी ओर रामलीला का भी एक मंच बना है।
इसी जगह के एक ओर दंगल का अखाड़ा हुआ करता था। जमीन से 2 फुट मिट्टी , एक गोलाकार जगह में इकठ्ठा थी। जो साल भर खाली पड़ी रहती। दंगल के समय उस जगह जो अच्छे से जोतकर , मिट्टी को भुरभुरी कर दिया जाता। उस अखाड़े के चारों तरफ दर्शक घेर कर , कुश्ती देखते। आगे के लोग जमीन में ही बैठ जाते , पीछे लोग खड़े रहते।
जिस दिन दंगल होता , मुझे बहुत ख़ुशी होती। उस दिन मुझे 2 रूपये या 5 रूपये दिए जाते। कई बार दस रूपये भी पर कभी भी दस रूपये से अधिक न मिले। उन दिनों इतने रूपये काफी होते थे , वैसे मेरे कुछ सहपाठी 50 रूपये भी ले जाते थे। अगर कभी मैं अधिक रूपये के लिए बोलू भी तो ज्यादा न मिलते। दरअसल ज्यादा रूपये होते ही नहीं थे घर में। काफी कम उम्र में ही , कम पैसे से कैसे काम चलाया जाय , इसकी आदत पड़ गयी.
दंगल देखने पहले पापा के साथ उनकी साइकिल पर आगे डंडे पर , दोनों पैर लटका के बैठ कर जाया करता था। डंडे पर कोई कपड़ा लपेट दिया जाता , ताकि ज्यादा लगे नहीं। बाद के सालों में जब कुछ बड़ा तो खुद अकेले जाने लगा।
दंगल का अखाडा , घर से 2 किलोमीटर की दुरी पर था। जब ही मैं पहुँचता तो दंगल शुरू हो चूका होता। दूर से ही कानों में लॉउडीस्पीकर की आवाज सुनाई पड़ने लगती। कदम काफी तेज हो जाते। दंगल के अखाड़े पास , रास्ते में मेला लग जाता।
प्रायः गांव के दुकान वाले ही वहाँ अस्थायी दुकान लगा देते। खुले में गर्मागर्म जलेबी बन रही होती। गैस वाले गुब्बारे , इमली और कैथे वाले , चाट और पानी के बताशे वाले , समोसे यह कुछ वह चीजें है जो सबसे ज्यादा बिका करती। मेले में काफी चीजे हुवा करती करती , कहीं कोने पर कुछ लड़के कंचे खेलते तो कुछ लड़के गुल्ली डंडा भी खेला करते।
मैं जैसे ही मेला पहुँचता तो कुछ खाने पीने के बजाय जल्दी से अखाड़े की भीड़ चीर कर आगे बैठने की कोशिश करता। अखाड़े में कुछ कुशल ढोल /डुगडुगी ( सही शब्द नहीं मिल रहा है , आपको पता हो तो बता दीजेगा ) पीटते हुए घूमते रहते। कुछ पहलवान नंगे बदन लाल लंगोट पहने , कुछ पुरे कपड़ो में अखाड़े के चारों चक्कर लगाया करते।
एक तरफ मंच से एक मास्टर साहब जोशीली कमेंट्री करते रहते और बीच बीच में पहलवानों के लिए ईनाम बोलते रहते - लाल लंगोट पर 1000 रूपये , आगे वाले पहलवान पर 2000 रूपये। ऐसे में कुछ पहलवान आते और पहलवानों से हाथ मिलाते। अगर पहलवान ने हाथ मिला लिया तो जोड़ पक्का।
अखाड़े में कुछ रेफरी भी हुआ करते थे , यह रेफरी पुराने समय के पहलवान थे जो अब कुश्ती में यह भूमिका निभाया करते। कई बार कुश्ती , बराबर में छूटती , तब ईनाम बराबर बाँट दिया जाता। सबसे रोचक कुश्ती वो हुवा करती थी जब कोई दुबला पतला पहलवान , किसी जोरदार पहलवान को अपनी कलाकारी के चलते पटक दिया करता था। अगर आप को सही दावं पता है और विपक्षी उसमें फस गया है तो समझ लो उसका हारना /चित होना तय है।
( जारी ________________)
©आशीष कुमार , उन्नाव , उत्तर प्रदेश।
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