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बुधवार, 31 अक्टूबर 2018

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"चंदा भिजवा देना" 

           
(प्राक्थन : बहुत ही लम्बी पोस्ट है और काफी हद तक ओछी भी। कहानी का तारतम्य न टूटे इसलिए इसे   पार्ट में पोस्ट न  करके एक साथ ही पोस्ट कर रहा हूँ।    यह कहानी कई बार अलग अलग लोगों से बताई है पर अब वक़्त  है कि इसे शब्दों में ढाल दिया जाय। कहानी पढ़कर आपको तमाम ख्याल आ सकते हैं , मैं खुद काफी दिनों तक दुविधा में रहा कि जाने दो वो पुराने दिनों की बात है पर आपने  अक्सर सुना होगा कि लोग कहते है कि  आदमी अक्सर कुछ बनने के बाद बदल जाता है , घमंडी हो जाता है।  इस पोस्ट में सालों पुरानी बात का जबाब दिया है और कुछ नहीं। एक लिहाज से यह पोस्ट ओछी भी है पर तलाशने वाले इसमें मोटिवेशन भी तलाश सकते हैं। आप यह भी सोच सकते है कि इस तरह की पोस्ट मुझे अब शोभा नहीं देती पर मन मे जब अन्तर्द्वन्द बढ़ जाए तो उसे शब्द रूप देना ही पड़ता है। बाकि इंसान बदलता या घमंडी नहीं होता हाँ वो पहले जिन चीजों पर चुप रह जाता है , उनपर जबाब देना सीख लेता है।)


गाँधी जी की आत्मकथा पढ़े हुए काफी समय बीत चुका है पर मुझे एक घटना याद  आती है। गाँधी जी के व्यायाम शिक्षक ने उन्हें देर से आने के लिए डाटा था गाँधी  जी ने जब  देरी से आने का   कारण बदली ( क्लाउड्स )  को को दिया तो उन्हे गलत समझा गया । जब मैंने यह घटना पढ़ी थी तो मुझे लगा कि घटना भले छोटी हो पर गांधी जी के बाल मन पर इसका गहरा असर पड़ा था । कुछ ऐसी ही बात है जिसे 16 साल बीत गए है पर मुझे शब्दवत याद है ।


यह  काफी पहले की बात है। मैं इंटर का छात्र था।   2003 में जब फ़ाइनल एग्जाम होने वाले थे ।  ट्यूशन का आखिरी महीना ( ( सम्भवतः फरवरी 200 3 ) ) था. मैं उन दिनों दो जगह ट्यूशन पढ़ने जाता था। एक जगह फीस थी 140 रूपये/ महीने । दूसरी जगह जहाँ इंग्लिश पढ़ता था वहां फीस थी ६० रूपये/महीने । इंग्लिश वाले सर ने पहले महीने को छोड़ दोनों साल ( कक्षा 11 व 12 ) फीस नहीं ली। वहाँ के बारे में पहले भी पोस्ट लिख चूका हूँ। मैं उनका प्रिय छात्र  था और इंग्लिश में मेरे सबसे ज्यादा अंक आये थे।

आज वहाँ की बात करता हूँ जहाँ गणित , फिजिक्स , केमिस्ट्री पढ़ता था। प्रसंगवश मैं एक सरकारी स्कूल में पढ़ता था जहाँ दोनों साल को मिलाकर 10 क्लास भी न चली होंगी। इसलिए  ट्यूशन क्लासेस का जोर था। आखिरी महीने में सर ने एक दिन कहा कि "आशीष अपनी फीस जमा कर दो।"  मैं चौक गया क्योंकि मैंने पहले ही फीस जमा कर दी थी। मैंने कहा कि "सर फीस तो मैंने पहले ही  दे दी है।" उन्होंने कहा कि " देख लो , पापा से पूछ लेना शायद भूल गए हो "। मै अब कुछ परेशान हो गया था। यह एक प्रकार से मेरे चरित्र पर आरोप था । उसी बीच एक डेढ़ सयाना लड़का चट से  बोला कि" महावीर हलवाई के यहाँ समोसे खा डाले होंगे" । पाठको को जिज्ञासा हो रही होगी कि यह लड़का कौन था । मै उसका नाम नही लिख रहा हूँ पर अंत मे आप समझ जरूर जाएंगे मै किसकी बात कर रहा था । वैसे वो फ़ेल हो चुका था और हम जूनियर के साथ फिर से पढ़ रहा था ।  मै रोने को हो आया ,मेरे पास  अपनी सच्चाई  का कोई सबूत न था । सारी क्लास मे मुझे शक के तौर पर देखा जा रहा था आखिर गुरु पर प्रश्न कोई नही उठा सकता था । गुरु जी कुछ और भी बाते कही- यथा कि "मै वैसे ही किसी लड़के को कुछ खाना पीना होता है तो  10 / 20 रुपए लास्ट मे छोड़ ही देता हूँ । तुम मुझसे बता कर ले लेते" । मै उनसे क्या कहता कि 2 साल मे भी आप यह समझ ही न पाये मै उस तरह का लड़का हूँ ही नही ।

मैंने पापा से भी यह बात बताई कि उन्होने भी मुझ पर एक भी सवाल किए यही कहा कि वो भूल गए होंगे और अब दोबारा फीस देने की जरूरत नही है । उन दिनो पिता जी एक प्राइवेट स्कूल मे टीचर थे और मासिक वेतन 1000 रुपए मात्र था । ऐसे मे हर पैसे का निश्चित  हिसाब होता था । एक रोज अपने केएनपीएन स्कूल के बड़े वाले मैदान मे घास पर  बैठकर  जब हम एक साथी के साथ गणित के सवाल हल कर रहे थे तो उस  साथी से भी यही जिक्र किया । दोस्त का नाम कुलदीप सिंह था । संपर्क मे नही है , उनके ग्राम का नाम पता नही । इतना जरूर याद है कि ठाकुर थे ( कोई उनके सम्पर्क में हो तो मुझे उनसे जोड़िये ,प्लीज ) । उसकी बात से मुझे बहुत दिलासा मिली । उसने कहा कि " सर को तो हर रोज कोई न कोई फीस देता है , सैकड़ो लड़को में आपकी फीस लिखना भूल गए होंगे "। सर ने अनुसार वो हर रोज अपने घर जाकर फीस नोट करते थे । रसीद आदि की सिस्टम न था ।

खैर फीस दुबारा देने का कोई तुक नही था और यह भी कहूँगा कि सर ने ज्यादा कहा भी नही । मेरे लिहाज अब  सब ठीक था, पर मै गलत था  । काफी दिनो बाद एक मित्र ने मुझसे एक बात बताई । किसी दिन मै वहाँ पढ़ने नही गया हूँगा उसी दिन वो बात हुयी । मित्र के अनुसार - सर ने मेरे पीठ पीछे  कहा कि "पटेल ठीक लड़का नही है" । मैंने मित्र से पूछा किस प्रसंग मे वो ये बात कह रहे थे । उसने बोला "वही फीस के संदर्भ मे "। उस दिन के बाद से उनके प्रति सभी भाव मर गए । मै हमेशा से अपने गुरुजनों का बहुत सम्मान करता रहा हूँ पर उनको उसी दिन से गुरु के श्रेणी से हटा दिया ।

शुरू के कुछ साल तक उधर जाना हुआ तो उनकी कोचिंग भी गया । चरण स्पर्श भी करता  था पर मुझे वो बात भुलाए भूली नही ।


अभी पिछले दिनो की बात है (  सितम्बर 2018 ) , एक मित्र का फोन मौरावा से आया और बोला कि "सर बात करेंगे"  । मुझे मित्र पर जरा गुस्सा भी आया पर बात तो करनी ही थी । दरअसल खुद्दारी का भाव बचपन से ही कूट कूट कर भरा है और जीवन के कुछ उसूल है कि एक बार कोई नजर उतर जाए तो लाख कोशिस कर लूँ दिल के तार जुड़ नही पाते। कई लोगों ने कोशिस कि उनसे संपर्क करवाने की पर मैंने उक्त घटना का जिक्र करते हुये मना कर दिया ।

सर ने पूछा " कैसे हो" ,
मैंने कहा कि "ठीक हूँ "।

मै उम्मीद कर रहा था कि मुझे आईएएस की परीक्षा पास करने की बधाई मिलेगी आखिर हर  शिष्य उम्मीद करता है कि उनके टीचर  सफलता  पाने पर शाबाशी दे । भारत मे आईएएस के एक्जाम बड़ा और सम्मानीय क्या हो सकता है विशेषकर अगर आप छोटी जगह से हो तो इसके और भी मायने बढ़ जाते है । पर  सर तो किसी दूसरे मूड मे थे । बोले कि इस दिवाली एक कार्यक्र्म का आयोजन कर रहा हूँ आना जरूर । मैंने कहा कि सर दिवाली मे टिकिट की बहुत दिक्कत है , बड़ी मुश्किल से दशहरे की टिकिट मिली है जिसमे घर आना होगा । उन्होने कहा कि "आना चाहे न आना पर चंदा जुरुर भेजवा देना "। मेरे मुह से तुरंत निकला - सर किस बात का चंदा ? दरअसल वो चुनाव भी लड़ते है इसलिए उन्हें  नेता भी कहा जा सकता है । उन्होने कहा कि 4000 / 5000 लोगों को बुला रहा हूँ , 1 लाख रुपए तक खर्चा आयेगा उसी लिए । एक पल लगा कि उसी वक़्त उनको सारी बात बता दूँ और बोलू कि "पटेल तो पहले से बुरा लड़का है"  पर शांत रहा । एक ही चीज समझ आई कि यह बड़ा ही स्वार्थी इंसान है । फोन रखने से पहले एक बात और भी बोल दी कि" मुझे बार बार फोन करने की आदत नही है , समझ रहे हो न"। इसमे भी   मुझे बड़प्पन की बु आई । मुझे इतना जरूर यकीन है कि यह आयोजन छात्र मिलन समारोह के बहाने राजनीतिक आकांक्षा की पूर्ति की कोसिश जरूर होगी । दरअसल जहां से राजनीति शुरू होती है वही से हम दूर से प्रणाम कर लेते है ।

मौरावा मे इस चीज का हमेशा से बहस होती रही है कि दोनों अध्यापकों मे अच्छा कौन है । इसलिए कुछ बात अंग्रेजी वाले सर की भी बात कर लिया जाय। ऐसा नही है कि वो बहुत अमीर थे इसलिए मुझसे फीस नही लेते थे । कोई पारिवारिक रिश्ता भी तो न था। बस वो चीजों को समझ सकते थे कि हम उन दिनों आर्थिक संघर्ष से जूझ रहे थे । मै इन्हीं  करणों से  अपार श्रदा भी रखता हूँ  ।


यूं तो तमाम बाते है करने को एक दो ही उल्लेख कर रहा हूँ । उनकी चंदे वाली बात को मैने  कई बार सोचा कि आखिर किस हक से उन्होंने ने वो बात कही थी , लगा कि टीचर , किसी के भविष्य को बनाता है इसलिए वो शिष्य पर हक जतलाता है पर उन पर तो यह भी बात लागू नही होती । उन्हे पता नही कि इंटर की गणित मे मुझे आज तक सबसे कम अंक आए है , हर विषय से भी  कम । 100 मे सिर्फ 37 अंक । यूं तो सबकी अपनी अपनी मेहनत होती है पर मै इतना तो कमजोर न था । वस्तुत मेरे तो गणित मे हमेशा से अच्छे अंक आते रहे है । दरअसल आपकी क्लास मे आपके भी कुछ प्रिय छात्र थे , जिनके सवाल ही आप बताते थे , बाकी लोग सिर्फ सुना ही करते थे । यह तो भला हो कि प्रतियोगी परीक्षाओ मे सिर्फ अंकगणित मे दक्षता काफी होती है वरना अपनी लुटिया कब की डूब चुकी होती । दूसरी और अँग्रेजी की क्लास तो बगैर फीस दिये पढ़ी थी और उसमे क्लास मे सबसे अच्छे अंक आए । बाद मे प्रतियोगी परीक्षाओ मे उन दिनों की अँग्रेजी का ज्ञान बड़ा सहायक बना ।


दूसरी बात भी बड़ी सामान्य ( काफी हद तक ओछी भी )  है पर जिक्र करना जरूरी है, अँग्रेजी वाले गुरु जी इस साल सिविल सेवा मे सफलता के बाद , खुद मेरे घर तक आए , दूसरी ओर आप एक बार गावं आए थे पर वोट माँगने । आपको याद आया कि इस गाव मे मै भी रहता हूँ तो अपने नंबर लिया होगा किसी से और कॉल की थी वोट व  सपोर्ट के लिये  ।

इन बातों को यही बंद कर देते है , थोड़ी बात उस डेढ़ सयाने लड़के की भी कर लेते है । एक दिन सर्दी के दिनों मे लखनऊ से अपनी कार मे लौट रहा था ।  बसहा तिराहे  से आगे बढ़ा तो एक नजर उधर गयी । मुँह मे गोल गोल  मफलर लपेटे वो  एक तसले मे पानी मे साइकल का ट्यूब डुबो डुबो  कर वो  पंचर चेक कर रहा था । आप यह मत सोचे कि मैं किसी के व्यवसाय पर टिप्पड़ी कर रहा हूँ बस यह देखे  कि उस दिन उसकी टिप्पड़ी "महावीर हलवाई के यहाँ समोसे खा डाले होंगे"  से मुझे कितनी चोट पहुँची थी। उस दिन मैं कमजोर , बेबस  व लाचार था। अगर मैं उसी के संस्कारों का होता तो गाड़ी रोकता और पूछता - "भाई कैसे हो , कैसी चल रही है लाइफ, तुम्हारा जातीय दम्भ, एकलौते लड़के होने की ठसक  कहाँ गयी।"  तो वास्तव मे न्याय का अहसास होता पर मै आगे बढ़ आया यह सोचते हुये कि जैसी करनी वैसी भरणी ।



©  आशीष कुमार , उन्नाव , उत्तर प्रदेश।  

A CUP OF COFFEE


अ कप ऑफ़ कॉफी 


" चाय/कॉफी सिर्फ पेय पदार्थ नहीं है वरन मैत्री , अपनत्व , घनिष्ठता जतलाने के उपक्रम भी है। "

इस साल गर्मियों में मैं पुणे में था। वहाँ से महाबळेश्वर घूमने गया था। पहले की एक पोस्ट (पुरन्दर का किला ) में इसका जिक्र किया है कि यह यात्रा पुणे के एक मित्र नवनाथ गिरे के साथ बाइक पर की थी। जब मैं पहाड़ियों के बीच से गुजर रहा था तो मैंने एक साइन बोर्ड देखा - भारत का पहला पुस्तक गावँ भिलार ।  

मुझे कुछ कुछ इसके बारे में याद आया। वास्तव में पुस्तक गांव से क्या आशय था मुझे पता न था पर यह जानकर बहुत खुशी हो रही थी कि भिलार गांव मेरे रास्ते में ही था। यह एक प्रकार से बोनस था मैं तो बस महाबळेश्वर घूमने जा रहा था बीच में पुस्तक गांव मिलना सुखद आश्चर्य सरीखा था। वैसे भी जब यह इस तरह की बात हो कि भारत में पहला , तो उत्सुकता और बढ़ जाती है कि आखिर वहाँ है क्या। 

बाइक होने के अपने फायदे थे जहाँ मन हो वहाँ रुको, जिधर जाना है उधर जाओ। पुस्तक गाँव पंचगनी पहाड़ियों के पास था। यह मुख्य रास्ते से हट कर था , मुझे लगता है कि 3 या 4 किलोमीटर भीतर होगा। गाँव पहुंचने पर मुझे कुछ बोर्ड दिखे , उनको फॉलो करते हुए हम आगे बढ़े। उधर इतनी चढ़ाई थी कि दोनों लोग एक साथ बैठकर बाइक से चढ़ पाना मुश्किल था। ऊपर चढ़े तो कुछ दिखा नहीं , एक और बोर्ड था। लगा कि वापस लौट  लिया जाये क्योंकि थोड़ी थोड़ी बारिश भी होने लगी थी , ज्यादा देर करने का मतलब था कि महाबळेश्वर के लिए देरी करना। बोर्ड को फॉलो करते आगे बढ़े तो एक सूंदर सा मकान दिखा। 

बाहर एक नौकर कार धो रहा था। हम लोगों ने बाइक खड़ी की और आने का उद्देश्य बताया। दरअसल उस समय तक हमे जरा भी पता नहीं था कि पुस्तक गांव का मतलब क्या था। इस निर्जन में बने सुंदर बड़े  घर में पुस्तकों से जुड़ा  कुछ नजर न आ रहा था। नौकर ने इंतजार करने को बोला।



तब तक मकान मालिक बाहर आ गए। उनका नाम अनिल भिलारे था।  मकान के एक कोने में एक अच्छा सा कमरा था जहाँ बड़ी आरामदायक कुर्सी पड़ी थी। अनिल भिलारे  जी ने पुस्तक गांव का उद्देश्य बताया। 

उनके अनुसार महाराष्ट्र सरकार के किसी मंत्री ( शायद संस्कृति ) ने अपनी ब्रिटेन यात्रा के दौरान ऐसा ही गांव देखा था। ब्रिटेन में हे -ऑन- वे नामक जगह का विकास कुछ ऐसा ही किया गया है। इस गाँव में लगभग 25 लोगों को तमाम किताबें व आधारभूत ढांचा यथा अलमारी , फर्नीचर आदि के लिए सरकारी सहायता उपलब्ध कराई गयी है। कही पर नाटक , किसी घर में कविता , संगीत आदि के लिए ऐसे इंतजाम किये गए है।

भिलारे जी ने अपने घर में परीक्षा की तैयारी से जुडी किताबें के लिए व्यवस्था की थी। उनका कहना था कि आस पास के गाँव के होनहार लड़कों को एक जगह पर परीक्षा विशेष कर महाराष्ट्र सिविल सेवा  से जुडी तमाम किताबें मिल जाये , उनका यही उद्देश्य था। नवनाथ जी जब जिक्र किया कि मैंने संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास की है तो वो बड़े खुश हुए। मैंने उनसे कहा कि अगर उनकी इच्छा हुयी और मेरा इधर प्लान बना तो मैं वहां के युवाओं को सिविल सेवा के लिए सहर्ष लेक्चर दे सकता हूँ।


( बीच में अनिल भिलारे जी, पुणे के मित्र नवनाथ और मैं  ) 

 दरअसल उस जगह गए तो अनजान बनकर थे पर बात कुछ ऐसी छिड़ी कि लगा हम वर्षो के मित्र है। अनिल जी वास्तुकार हैं, युवा अवस्था में उन्होंने खूब मेहनत की , पैसे कमाए। पिछले कुछ समय से उनको बैकबोन की प्रॉब्लम है इसलिए अपने काम से अपने को अलग कर लिया। उनकी बेटियाँ किसी अच्छी जगह पढ़ रही है। अब वो अपने कार्य से मुक्त होकर यहां समाज सेवा के साथ सकून की जिंदगी जी रहे है। यह उनका पैतृक घर था। घर के सामने ही उनका स्ट्राबेरी का बाग था।

चारों तरफ हरियाली , असीम शांति की जगह थी वो। तमाम बातें हुयी , साथ में फोटो खींची गयी। हमने चलने की इजाजत मांगी तो उन्होंने कहा " एक कप कॉफी तो पीकर जाइये " और अपने पत्नी को आवाज दी कि कॉफी बना लाओ। थोड़ी न नुकुर के बाद हम तैयार हो गए। सच कहूँ उस वक़्त मुझे , इस अपनत्व को लेकर ख़ुशी हो रही थी। अपने घर से कितनी दूर , इस अनजाने जगह पर इस तरह की मैत्री हो गयी। 

चाय / कॉफी सिर्फ पेय पदार्थ नहीं है वरन मैत्री , अपनत्व , घनिष्ठता जतलाने के उपक्रम भी है। अनिल जी का रोड पर कहीं गेस्ट हॉउस/मिनी होटल  भी है उन्होने वहाँ रुकने का ऑफर भी दिया। मैंने उनको धन्यवाद दिया और बोला फिर कभी आना होगा तो जरूर रुकेंगे।

© आशीष कुमार , उन्नाव , उत्तर प्रदेश। 

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2018

That streat vendor


वो कनपुरिया पान वाला 

 काफी पहले किसी कक्षा में अंग्रेजी लेखक विलियम सी डगलस की एक कहानी A GIRL WITH BASKET पढ़ी थी। जिसमें लेखक को भारत की एक छोटी सी लड़की ने किसी रेलवे स्टेशन पर अपने स्वाभिमान से प्रभावित किया था। उस रोज कानपुर में एक छोटी से गुमटी में एक पानवाले ने मुझे निरुत्तर कर दिया।  

हमारी संस्कृति में पान की जगह बड़ी महत्वपूर्ण हैं। पान खाना  दरअसल पूरी तरह से नशे का रूप नहीं माना जाता। हाँ , रंगे हुए दाँत भद्दे जरूर लगते है। पान भी कई तरह के होते है। एक होता है -मीठा पान। जिससे जुडी एक कहानी आज लिख रहा हूँ। 

अगर मैं कहूँ कि मैं भी मीठा पान खाता हूँ तो इसका यह मतलब मत निकाल लीजियेगा कि मैं पान का लती हूँ। दरअसल मेरे पान खाने की दर साल में दर्जन /2 दर्जन से ज्यादा न होगी। कभी शादी -बरात , किसी मित्र का ख़ास आग्रह या फिर यूँ ही कभी कभार ऑफिस से लंच के बाद , बाहर टहलते हुए मीठा पान खा लेता हूँ। 

पान से याद आया कि बचपन में इसे खाने का विशेषकर शादी -बारात में, एक ही उद्देश्य होता था कि हमारे ओठ कितने लाल होते है ? हमारे उत्तर प्रदेश में पान का चलन खूब है। शादी /बारात /गोद भराई /मुण्डन /छेदन कार्यक्रम कोई भी हो अगर मेहमानों को खाना खिला रहे है तो खाने के बाद पान पेश करना बनता ही है। 

ऐसा कम ही हो सकता है  कि  भारत में रहते हो और बनारसी पान के बारे में न सुना हो। भारतीय सिनेमा का महानायक अमिताभ बच्चन भी इसकी महिमा का वर्णन कर चुके है - 

"  खाइके पान बनारस वाला , खुली जाय बंद अक्ल का ताला " 

हिंदी साहित्य में भी पान का वर्णन खूब हुआ है। सुप्रसिद्ध आंचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु ने तो " लाल पान की बेगम " शीर्षक से एक कहानी भी लिखी है जो महिला सशक्तिकरण को बखूबी बखानती है।   

इधर अहमदाबाद में मीठे पान को सिंगोड़ा पान बोलते है। प्रायः पनवारी पान बनाकर फ्रिज में रख देते हैं और ग्राहकों को ठंडा पान पेश करते है। इसके दाम अमूमन 20 रूपये हैं। नेशनल हैंडलूम , रानिप के बाहर 15 रूपये में मिलेगा और ठन्डे पान के ऊपर  गरी -बुरादा लपेट कर दिया जाता है। मेरे ख्याल से यहाँ सबसे सही पान मिलता है। मिलने को तो मानिक चौक ( अहमदाबाद में खान -पान के सबसे प्रसिद्ध जगह , जहाँ आप रात के 2 बजे तक खाना /फास्टफूड खा सकते है। ) में 10 रूपये का भी मिल जायेगा। हाल में ही उधर गया था तो एक आदमी साइकिल पर 10  रूपये का पान बेच रहा था। 

आप सोच रहे होंगे कि मैंने शीर्षक में जिस पान वाले का जिक्र किया है , उसकी कहानी क्यों नहीं बता रहा हूँ। दरअसल ऊपर भूमिका बताना जरूरी था वरना आप उस रोज घटित घटना के मर्म को न समझ पाएंगे। 

मेरे ख्याल से पिछले साल  इन्हीं दिनों में uppcs की परीक्षा का pre एग्जाम था। वही जिसका मैन्स अभी जून 2018 में हुआ है और जिसमे हिंदी के पेपर में गड़बड़ी हो गयी थी। मैं एग्जाम देने कानपुर गया था। मेरा सेण्टर DAV डिग्री कॉलेज था। हाँ , वही जो ग्रीन पार्क स्टेडियम के सामने है। पहला पेपर देने के बाद , लंच के लिए बाहर आया। 

कॉलेज के बगल की गली में एक चाय की दुकान थी। चाय पी। चाय थी 6 रूपये की। संयोग से 5 रूपये खुले थे। भीड़ की मारामारी इतनी थी कि उसके पास खुले रूपये देने का वक़्त न था क्योंकि मैंने उसके 50 रूपये देने की कोशिश तो उसने यह बोलते हुए मना कर दिया कि चलेगा।

चाय पीकर मैं रोड के दूसरी तरफ खड़ा हो गया और समोसे /चाय के लिए परेशान भीड़ को देखने लगा। दूसरे पेपर शुरु होने में कुछ देर ही बाकी थी , तभी उस पर नजर गयी। जहाँ मैंने चाय पी थी उसके बगल में ही सरकारी नाली के ऊपर उसकी गुमटी रखी थी। गुमटी के दो पैर नाली के इस तरफ , दो दूसरी तरफ थे। कहने का मतलब जगह का खूब सदुपयोग किया गया था। 

गुमटी ? अरे भाई , लकड़ी की बनी दुकान। वैसे कानपूर में गुमटी नामक एक जगह भी है। उसी गुमटी में पूरी तल्लीनता से वो पान बनाने में जुटा था। अगर निराला जी के शब्दों में कहूं तो -

"वो पान बनाता हुआ , 
मैंने देखा उसे  , कानपूर की एक दुकान पर"


मुझे लगा कि मीठा पान खाये , एक अरसा हो गया है । एक और भी प्रबल कारण था -दरअसल मुझे चाय वाले के 1 रूपये का अहसान काफी परेशान कर रहा था। सोचा पान के बहाने , रूपये खुले करा लेता हूँ। मैं रोड पार करके , फिर उधर आ गया और उससे जाकर पूछा -
"भइया मीठा पान कितने का ? "
" सात रूपये " 
" तो बनाइये फिर " . मैं फिर एक बार सोच में पड़ गया कि यहां भी टूटे रूपये का लफड़ा होगा। मैंने उससे कहा - " हमारे अहमदाबाद में तो 20 रूपये का मिलता है मीठा पान ( कुछ वैसा ही जैसा कि विजय राज , रन फिल्म में बोलते है कि हमारे यहाँ तो 4 लेग पीस मिलते है )।

"एक काम करो , सब चीजे अच्छे से डाल दो और मैं 10 रूपये दे दूँगा " 

इतनी देर बाद , उसने नजर उठा कर मेरी तरफ देखा और बोला - " यह चुतियापा ( इस शब्द के प्रयोग बगैर कानपुर का अहसास न होगा ) हमसे न होगा। पान 7 रूपये का ही बनेगा और खा कर देखो तब कहना " .

मैंने उससे बोला कि" दरअसल मैं सीधा 10 रूपये देना चाहता था ताकि खुले रुपयों का लफड़ा न हो। " 

" उसके लिए परेशान क्यों हो , मैं दूंगा खुले रूपये लेकिन हमारा पान 20 रूपये वाले पान से कम न होगा " . मैं निरुत्तर था। शायद उसकी नजर में  मैंने उसके 7 रूपये वाले पान को कम आंक कर , उसके स्वाभिमान को चोट पहुंचा दी थी।

उसने खूब तल्लीनता से एक शानदार मीठा पान बना कर दिया। उससे टूटे रूपये लेकर , मैंने बगल में चाय वाले को 1 रुपया दिया। वो समझ न सका किस बात के 1 रूपये। मैंने वो कड़क पान गटकते हुए , अगला पेपर दिया और शानदार अंको से पास हुआ यह अलग बात है कि मुझे उसका  मैन्स देने की जरूरत न पड़ी। 

© आशीष कुमार , उन्नाव , उत्तर प्रदेश। 

मौलिकता प्रमाण पत्र 
मैं आशीष कुमार , प्रमाणित करता हूँ कि उक्त लेख मौलिक व अप्रकाशित है। 

दिनांक - 09.10.2018 
अहमदाबाद


परिचय : युवा लेखक आशीष कुमार शौकिया तौर पर हिंदी लेखन करते है। उनकी कुछ रचनाएँ पुनर्नवा ( दैनिक जागरण ), कुरुक्षेत्र, बाल भारती जैसी पत्रिकाओं  में प्रकाशित हो चुकी हैं। पिछले 7 सालों से अहमदाबाद में एक्साइज एंड कस्टम विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर सेवारत। हाल में वो संघ लोक सेवा आयोग की  भारतीय सिविल सेवा परीक्षा में भी चयनित हुए है।

संपर्क - 382 , ईशापुर , चामियानी , उन्नाव , ( उत्तर प्रदेश ) - 209827
ईमेल -ashunao@gmail.com







रविवार, 7 अक्टूबर 2018

9 years in UPSC


नौ साल upsc की तैयारी में 


प्रिय पाठकों , यह लेख एक लोकप्रिय  पुस्तक के लिखे लेख का सम्पादित अंश है। पुस्तक में जब प्रकाशित होगा तब उसका जिक्र करूंगा , अभी आप इस रूप में पढ़िए , उम्मीद करता हूँ आपको इससे प्रेरणा मिलेगी। 

अपनी बात आगे बढ़ाने से पहले अपना  छोटा सा परिचय दे दूँ। मै आशीष कुमार , उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले से हूँ। इस वर्ष (2017 ) सिविल सेवा परीक्षा में हिंदी माध्यम और हिंदी साहित्य विषय के साथ रैंक  817 से साथ चयनित हुआ हूँ।  कुछ और जरूरी बातें भी साझा कर रहा हूँ। यह मेरा 9th और अंतिम प्रयास था। इससे पहले 5 मैन्स और 2 इंटरव्यू दे चूका था। 

उन्नाव जिले के मुख्यालय से करीब 35 किलोमीटर दूर मेरा गांव है। मेरी पूरी पढ़ाई गांव व उन्नाव जिले में ही हुयी है। गणित विषय के साथ स्नातक , इतिहास विषय के साथ परास्नातक हूँ। मैं कभी भी  पढ़ने में बहुत अच्छा नहीं रहा हूँ , प्राय दितीय श्रेणी में ही पास होता रहा हूँ। 

अगर मैं  यह कहूँ कि सिविल सेवा में आने का मेरा बचपन से सपना रहा है तो गलत होगा। दरअसल एक आम ग्रामीण परिवार की तरह मेरी इच्छा बस एक अदद सरकारी नौकरी तक ही थी। इसीलिए मैंने पहले एक दिवसीय परीक्षाओं की शुरू की थी। उन दिनों में ही सिविल सेवा के बारे में पता चला तो मैंने 2009 से ही इस परीक्षा में बैठने लगा। तमाम रिश्तेदारों , मित्रों ने मजाक उड़ाया कि " एक नौकरी तक मिलती नहीं , सीधे आईएएस बनने का ख्वाब देखने लगे " . 

घर के आर्थिक हालत बहुत अच्छी नहीं थी। इसे सौभाग्य कहे या मेहनत कहे , मुझे 23 साल की उम्र से ही सरकारी नौकरी मिल गयी। इससे पहले भी मै 17 साल की आयु से टुअशन पढ़ाकर , काफी हद तक आत्मनिर्भर हो चूका था। 

सरकारी नौकरी मिलने से आर्थिक सम्बल तो मिला पर अब समय कम पड़ने लगा। 1 साल अध्यापक की नौकरी , 1 साल सिविल आर्मी में ऑडिटर ( कर्मचारी चयन आयोग ) के बाद, 2010 में एक्साइज एंड कस्टम विभाग में इंस्पेक्टर की जॉब के साथ मैंने एक दिवसीय एग्जाम देना बंद कर दिया। अब एकलौता  लक्ष्य सिविल सेवा था। 

विडम्बना यह हुयी कि मेरे जॉब गैर हिंदी भाषी ( गुजरात ) में होने के चलते , हिंदी से जुडी सामग्री मिलना जरा मुश्किल थी। धीरे धीरे चीजे व्यवस्थित हुयी। सिविल सेवा में लगातार उतार -चढ़ाव लगे रहे। 2010 में मैन्स , 2011 में इंटरव्यू , 2012 में प्री फैल , 2013 मैन्स , 2014 मैन्स में इंग्लिश में फेल , 2015 में इंटरव्यू , 2016 में फिर प्री फेल होना मुझे कुछ हद तक अंदर से तोड़ चुका था। 

2017 में अंतिम बार सिविल में बैठना था। पिछले 8 सालों के अनुभव , कमजोरियों को दूर करते हुए , अपना सर्वोत्तम देने  का प्रयास किया। अंततः मुझे अपना नाम चयनित सूची में देखने को मिला। रैंक अपेक्षा के अनुरूप न मिली पर मैं बहुत खुश हूँ। मुझे हमेशा से चीजों के सुखद पक्ष को देखने की आदत है।  इस साल मुझे हिंदी साहित्य में 296 अंक मिले है , इसका श्रेय अपने साहित्य के प्रति रुझान को  दूंगा। 

 पाठकों से एक विशेष बात साझा करना चाहूंगा कि मैं मुखर्जी नगर, दिल्ली से दूर , बगैर किसी कोचिंग किये, जॉब करते हुए  सिविल सेवा में सफल हुआ हूँ। इसलिए तमाम मिथकों यथा अच्छे विश्वविद्यालय , मॅहगी कोचिंग , बहुत मेधावी की ज्यादा परवाह करने की जरूरत नहीं है। हर साल upsc में कम संख्या में ही सही, पर बेहद सामान्य परिवेश में पले -बढ़े जैसे लोग सफल होते ही है। 

तमाम पाठकों को उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।  

- आशीष कुमार ,  उन्नाव उत्तर प्रदेश।     

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