मंगलवार, 7 जनवरी 2025

नौकर की कमीज (1994 )

 नौकर  की  कमीज (1994 ) 


        नए साल का पहला हफ्ता भी न बीता और एक उपन्यास खत्म हो गया। वैसे एक दशक पहले यह बड़ी सामान्य बात होती पर अबके दिनों में यह खुद के लिए बड़ी बात लग रही है और इसी बहाने काफी आरसे से रचनाकर्म में जो ठहराव आ गया था वो भी टूटता नजर आ रहा। 

        नौकर की कमीज पर बात करने से पहले कुछ और जरूरी बातें है जो पिछले कुछ सालों में महसूस हुआ। किताबों से जुड़ाव हमेशा से रहा यह अलग बात है कि आप उतना पढ़ा नहीं जाता। देश से सबसे बड़े पुस्तक मेला में हर साल जाता रहा और हमेशा पिछले साल से ज्यादा किताबे खरीदी। मेरे ख्याल से पिछले साल 10 हजार से ज्यादा रूपये की ही किताबें खरीदी , दरअसल कथा कहानी से आगे इन्वेस्टमेंट , ज्योतिष , दर्शन में रूचि बढ़ी तो किताबों में खर्च भी बढ़ा , हर बार लाकर फोटो खीच कर स्टेटस में लगाकर ओछा प्रदर्शन भी किया पर वो अनछुई रखी रही। एक कमरे की अलमारी से दूसरे कमरे की अलमारी तक गुजरती रही पर पढ़ी न गयी। कई बार उन्हें कुछ लोगों को उपहार के तौर पर भेंट कर दी। 

    किताबें और पेन भेंट करना एक शौक सा बन गया। लोग मना भी न कर पाते और खुद को एक सांत्वना भी रहती कि किताबें पढ़ी न गयी तो क्या हुआ किसी काम तो आयी।  

    अब इस नावेल की भी बात करना जरूरी हो गया है क्युकि उसकी शैली न चाहते हुए कुछ दिनों या समय तक लेखन में अनजाने में ही अनुसरित होती रहेगी। यह भी विडंबना है कि नौकर की कमीज , मेरे पास हार्ड कॉपी है पर किताब पढ़ी गयी है किंडल इ बुक रीडर पर। 



    ऐसा नहीं है कि नौकर की कमीज को पहले सुना या पढ़ने की कोशिस न की , कई बार उठाया पर २ पेज से ज्यादा पढ़ा न गया। शीर्षक इतना लुभावना कि हर बार मन करे कि देखे कहानी क्या है पर कहानी में विश्लेषण इतना ज्यादा है कि बड़ी हिम्मत और एक खास तरह का मूड हो तभी आप पढ़ सकते है। इस बार जाने क्या हुआ , किस मनोदशा में इस पढ़ना शुरू किया और ३ दिन में खत्म हो गयी।  वैसे अगर सीधा कहानी की बात करू तो एक पेज में कहानी समिट सकती है पर शुक्ल जी ने इसको जो विस्तार दिया है वहीं इस उपन्यास को अलग बनाता है। भाषा और शिल्प कई बार आपको कठिन लग सकता है , मैंने भी  इसको समझने के लिए u  tube का सहारा लिया ताकि समझ सकूँ जो समझा है वो ठीक है या नहीं। जरूरी नहीं जो मैं समझू वही सब समझे। 

    पूरी कहानी पर बात करने के लिए न समय है और न ही आप कि इसमें रूचि होगी पर अगर आप नौकरीपेशा है , नौकरी की बोरियत से जूझ रहे है , अपने आपको सार्थक न महसूस कर पा रहे हो तो यह आपको अच्छा लग सकता है। अंततः हम सब नौकर ही तो है संतू बाबू की तरह जिसे बुशर्ट उतार कर जबरदस्ती कमीज पहना (इस रूपक को समझना सबके बस की बात नहीं ) दी गयी है और उपन्यास के अंत में सब मिलकर कमीज के टुकड़ो को जला देते है। प्रशंगवस 1999 में मणि कौल ने इस पर एक फिल्म , इसी नाम से बनाई है।   

    दीवार में एक खड़की रहती थी (1997 ) को भी तमाम बार पढ़ने की कोशिस की है पर दो पन्नों से आगे न बढ़ पाया उम्मीद करता हूँ , जल्द ही उस पर बात होगी. 



 ©आशीष कुमार , उन्नाव ( उत्तर प्रदेश ) 










मंगलवार, 22 अक्टूबर 2024

अगर जूतों से रेस होती तो मैं भी खरीद लेता

 अगर जूतों से रेस होती तो मैं भी खरीद लेता 


    इस साल (2024) जुलाई से मैंने अपने फिटनेस प्रोग्राम में रनिंग भी जोड़ ली। जुलाई 24  में मेरी कोशिस ३ किलोमीटर दौड़ने की होती थी। अगस्त में मैंने इसे ५ से ७ किलोमीटर कर लिया। 22 सितम्बर 2024 को पहली बार डेकाथलान की दिल्ली वाली रेस में भाग लिया।  10 किलोमीटर मैंने 75 मिनट  के अंदर कर लिया जोकि मेरा खुद का टारगेट था। मुझे बहुत ख़ुशी मिली। रेस के सर्टिफिकेट और मैडल बहुत संभाल के रखा है।  

    इसके साथ ही मन में बहुत से ख्याल आने लगे। लगा कि मुझे एक ऐसा लक्ष्य मिल गया है जिसमें कोई अंत न है। जितना मन करे , जिस टाइम मन करे , जितना तेज मन करे दौड़ो। किसी भी उम्र तक इसे किया जा सकता है। इसीलिए मैंने बहुत सी रेस में एनरोल करा लिया। मैंने टारगेट रखा कि 2026 में टाटा मुंबई मैराथन जोकि जनवरी में होगी , में भाग लूँगा।  



  इसी बीच काफी सारे जूते जोकि रनिंग के लिए अच्छे माने जाते है भी खरीदे। डेडिकेटेड फिटनेस वाच भी लेनी पड़ी। वेदांत दिल्ली मैराथन में मैंने 10 किलोमीटर में भाग लिया। मुझे पता न था कि यह बहुत अच्छी रेस मानी जाती है। रूट , सभी तरह की व्यवस्था , हर लिहाज से अच्छी थी। जब मैं इंडिया गेट के पास से दौड़ते हुए जा रहा था तो एक बुजुर्ग ने मुझे टोका कि जुटे बहुत अच्छे है तो मैंने कहा थैंक  यू। अगली ही लाइन में बोले अगर जूते से रेस होती तो मै भी खरीद लेता। दरअसल वो व्यंग्य कर रहे थे क्युकि मै काफी धीरे दौड़ रहा था। वैसे भी लॉन्ग रेस में प्रैक्टिस और कितने साल से दौड़ रहे हो यह बहुत मैटर करता है। यह सच है कि आपकी स्पीड धीरे धीरे ही बनती है। रेस में बहुत से लोग मिलते है जो काफी उम्र दराज होते है पर बहुत अच्छी स्पीड से दौड़ते है। 

    मै उन अंकल की बात सुनकर मुस्कुराते हुए आगे बढ़ गया। रेस में तमाम लोग एक दूसरे को मोटीवेट करते रहते है। मैंने उनकी बात का बुरा न माना और उनसे प्रेरणा लेते हुए आगे बढ़ गया। मन में संकल्प लिया कि आने वाले दिनों में अपने महगे जूते को जस्टिफाई जरूर करूंगा।  

    - आशीष कुमार ,उन्नाव।  

( लिखी पिछले साल थी , पोस्ट अब हो रही है। )


सोमवार, 6 मई 2024

उन्नाव की कुछ यादें


 

 

अतीत बड़ा सम्मोहक होता है। यूँ तो उन्नाव को छोड़े बरसों बीत गए। पहले अहमदाबाद के दिनों में कानपुर होते हुए घर जाना होता तो उन्नाव में एक दो रात रुकना हो जाता था। अब जब छुट्टी ही एक दिन की मिलती है तो सीधा गाँव वाले घर में आराम फरमाना सबसे सुकूनदायक लगता है। 

 

कल शाम एक पार्टी में जाते हुए , उन्नाव की दिनों यादें आने लगी। सबसे पहले याद आयी कचहरी वाली अंजलि स्वीट्स की दुकान , उसके समोसे , खस्ता और आलू की सब्जी। उसके जैसा स्वाद कहीं न मिला। मुझे ऐसा लगता है व्यक्ति के स्वाद का उसके परिवेश , क्षेत्र का काफी असर होता है। जब कभी टूशन पढ़ाकर लौटे और भूख लगी तो दो खस्ते खा लिए।  डिमांड इतनी की हर वक़्त , गरमा गर्म मिल जाते थे। उसके बगल में एक बहुत छोटा सा ढाबा भी हुआ करता था , जिसमे मटर पनीर और तंदूरी रोटी , मेरा हमेशा का आर्डर होता था।

 

एक दुकान GIC स्कूल के सामने अंण्डे वाले की थी। जिसका ऑमलेट बहुत डिमांड में रहता , उसकी टमाटर वाली चटनी के लिए लोग काफी दूर से आते थे। चुकि मै उन दिनों केवटा तालाब में रहा करता था और अंडे वाले का घर पास में ही था। उसके घर को देख लोग कहा करते थे कि बहुत पैसे छाप रहा है।

 

एक पानी के बताशे की दुकान राजकीय पुस्तकालय के ठीक पास लगती थी , जिसके दही वाले बताशे बहुत डिमांड में रहते थे। दरअसल एक रिश्तेदार जिन्हे हम लोग काफी बड़े (तथाकथित एलीट ) मानते थे , उनको वह पानी पूरी खाते देखा तो काफी हैरानी हुयी। दरअसल स्ट्रीट फ़ूड लगता था आम लोगों के लिए ही होता है, उन दिनों पानी के बताशे , दाल फ्राई फालतू चीजें लगती थी। अब दोनों ही चीजे मेरी पर्सनल fov है। 

 

एक दुकान  एग्गरोल वाले की थी नाम शायद सुरुचि एग्गरोल कार्नर था। पहले पहल जब एगरोल खाया मजा आ गया। उसके यहाँ शाम को ही दुकान खुलती थी और बहुत देर रात तक खुली रहती थी। लाइन में लोग अपनी बारी का वेट करते थे। साफ सफाई का वो विशेष ध्यान रखता था। बाद के दिनों में वहां एक अंकल , ने प्रॉपर नॉन वेज का ठेला खोला। उनकी बिरियानी मेरा कई रातों का डिनर बना।

उन्नाव रेलवे स्टेशन के ठीक सामने बस अड्डे के पास बाबा होटल हुआ करता था जो शाकाहारी भोजन के लिए बहुत अच्छा था। एक लोहे के जीने से ऊपर चढ़कर जाना पढ़ता था पर यहां भी बहुत भीड़ हुआ करती थी। पुदीने वाली चटनी और प्याज के साथ गर्म गर्म तंदूरी रोटी और पनीर , बहुत संतुष्टिदायक होता था। 

 

मनोरंजन स्वीट्स काफी पुरानी दुकान थी , मेरे ख्याल से जोकि उन्नाव के सबसे पहले रेस्टोरेंट में गिनी जा सकती थी। काफी भीड़ होती थी , कई बार गया भी पर उनकी कोई विशेषता याद न आती है।

 


( बड़ा चौराहा , उन्नाव )

एक नॉनवेज की और दुकान आ रही थी जो पेट्रोल टंकी (राजा शंकर स्कूल के सामने ) छोटी दुकान में चलती थी। उसका स्वाद आज भी जुबान पर याद है। 

और अंत में जोकि इन सबमे सबसे बाद जुड़ा - छपरा वाला होटल , कहचरी उन्नाव। इनकी चाय , कचौडी अति डिमांड में रहती। असली स्वाद चाय का था जोकि शुद्ध दूध , चाय पट्टी को पत्थर वाले कोयले पर बनती थी। उस चाय शोधापन बहुत मुश्किल  से मिलता है। 


अब ये सब दुकानों का अस्तित्व है या नहीं मुझे पता नहीं। शहर काफी बदल गया होगा। हर दुकान की अपनी एक कहानी बन सकती है पर कोशिस कि यादों का दबाव कम से कम समय में सब समेट ले। ये कहानी 2003 से 2010 के बीच की है। दरअसल ये अड्डे है जहाँ स्वाद की ललक बार बार ले जाती थी। बेरोजगारी के दिनों , ये सब लक्ज़री से कम न था। समय के साथ शहर बदले , लखनऊ , अहमदाबाद से अब दिल्ली पर उन्नाव के सिवा अड्डे जैसे कही और न बन सके। मुझे ऐसा लगता है हर व्यक्ति जिससे अपना शहर पीछे छूट गया , उनको भी अपने शहर की ऐसी ही यादें जेहन में आ ही जाती होंगी। 

 

©आशीष कुमार , उन्नाव।

6 May 2024.

 

 

 

 

 

 

 

बुधवार, 16 अगस्त 2023

post without title

 


काफी दिन दिनों से कोई कहानी न लिखी , वजह तमाम है जैसे समय का न होना , लैपटॉप व  फ़ोन में आसानी से हिंदी टाइप न हो पाना और आखिरी पर सबसे महत्वपूर्ण बात इच्छा ही न  होना। 


तमाम नए अनुभव मिले , चीजों को बारीकी से अब भी  देखता हूँ पर न जाने लिखने की अब वजह खास दिखती। 


आज विशेष दिन है कोई अच्छी से कहानी तो याद न आ रही पर कुछ वाकये याद आ रहे है.


(1 )

सबसे पहली बात तो यही अजीब लगती है कि अब पायः सरकारी ऑफिस में छुट्टी भी मिलती है तो इस शर्त के साथ कि फ़ोन पर उपलब्ध रहना।  समझ न आता इस शर्त के साथ छुट्टी कैसी। एक मित्र काफी दिनों बाद जैसे तैसे पहाड़ो पर जाने के लिए छुट्टी ली , शर्त जुडी थी. बेचारे अपनी पूरी छुट्टी में बैठ कर पीपीटी बनाते रहे। अब कसम खायी है कि ऐसी छुट्टी न लेंगे , भले कितना ही वक़्त गुजर जाये. 


(2)

 आज लैपटॉप पर फेसबुक खोला तो एक मित्र याद  आ गए। आईपीएस है मध्य प्रदेश में। साथ इंटरव्यू दिया था , उनका चयन हो गया था मेरा न हुआ था।  मुखर्जी नगर जाना हुआ तो मैंने रिक्वेस्ट कि सर मुलाकात हो सकती है क्या। बात बन गयी। हडसन लेन में किसी रूम में मिले। पहली बार रूबरू किसी सफल व्यक्ति से मिल रहा था। २० मिनट की मुलाकात रही होगी. तमाम बातों के बीच में मैंने देखा उन्होंने लैपटॉप पर फेसबुक  खोला और देखा २ मिनट में जितनी भी उनके सामने पोस्ट आयी , सब में फटाफट लाइक करते चले गए। न तो उन्होंने बताया , मैंने पूछा कि बिना पढ़े , देखे ऐसे लाइक के क्या मायने। तमाम दिनों तो मै उसके अलग अलग अर्थ निकलता रहा जैसे ---- समय बचा रहे थे या फिर सबको सोशल दिखाने की कोशिस कर रहे थे पर अगर समय ही बचाना था तो फेसबुक खोला ही क्यू था और सोशल दिखना ही था तो कम से कम ध्यान से पढ़ते तो सही। 


- आशीष , उन्नाव।  

16 august , 2023


रविवार, 25 जून 2023

More income through Agriculture

 Here are some ideas to generate more income through agriculture in India:

  1. Value-added Processing: Explore opportunities to add value to agricultural products through processing and packaging. This can include producing items like ready-to-eat snacks, fruit juices, pickles, jams, and sauces, which can fetch higher prices in the market.

  2. Organic Farming: Consider transitioning to organic farming practices, as organic produce generally commands a premium price due to the growing demand for chemical-free and environmentally friendly products.

  3. Horticulture and Floriculture: Focus on cultivating high-value horticultural crops such as exotic vegetables, herbs, spices, and flowers. These products often have a higher market value and are in demand by the food industry, restaurants, and florists.

  4. Contract Farming: Collaborate with agro-processing companies or large retailers through contract farming agreements. This ensures a guaranteed market for your produce at a pre-negotiated price, reducing marketing risks and improving income stability.

  5. Diversification of Crops: Experiment with growing different crops that are suitable for your region and have a higher market demand. This could include niche crops, specialty varieties, or even cash crops like medicinal plants or aromatic herbs.

  6. Agro-Tourism: Explore the potential of agro-tourism by offering farm stays, nature trails, fruit-picking experiences, and educational tours. This can generate additional income while showcasing your farming practices and promoting rural tourism.

  7. Agricultural Services: Offer specialized services to farmers in your area, such as custom machinery rental, soil testing, crop consulting, or pest management services. These services can provide an additional revenue stream while supporting fellow farmers.

  8. Value Chain Integration: Consider integrating vertically within the agricultural value chain. For example, if you are involved in vegetable production, explore opportunities to establish a retail outlet or supply directly to restaurants and hotels, eliminating middlemen and capturing a larger portion of the value.

  9. Sustainable Livestock Farming: Incorporate livestock farming into your operations, such as dairy farming, poultry, or beekeeping. These activities can provide an additional income source through the sale of milk, eggs, honey, or meat products.

  10. Farmer Producer Organizations (FPOs): Join or form FPOs to collectively negotiate better prices, access credit facilities, and share resources. Collaborative efforts can enhance market access, reduce costs, and create economies of scale.

Remember, it's important to carefully assess the feasibility and market demand for any new venture or diversification strategy. Conduct thorough research, seek expert advice, and consider starting small before scaling up.

मंगलवार, 4 अक्टूबर 2022

बचपन

बचपन 


पता नहीं आप में किस किस ने बचपन में वो कहानी पढ़ी है या नहीं जिसमें एक छोटा बच्चा अपने पिता के साथ कहीं घूमने जा रहा होता है, रास्ते में उसे दूरी बताने वाले पत्थर पर लिखे अंको को लेकर जिज्ञासा होती है तो उसके पिता अंको का ज्ञान सिखाते हैं. यात्रा के आखिर में वो बच्चा सभी अंको को सीख लेता है। मुझे ये कहानी बहुत प्रेरित करती कि आखिर कैसे... खैर वो बच्चा आगे चल कर भारतीय इतिहास के एक प्रसिद्ध हस्ती बना...
भला बताओ वो कौन था? 

अतीत तो हमेशा ही सुखद लगता है वो भी क्या दिन थे। बच्चे पिता की अंगुली पकड़ कर लंबी दूरी घूमते थे और सफर में ही गिनती सीख लिया करते थे। 

© आशीष कुमार, उन्नाव।

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

Gulal film

"गुलाल"फ़िल्म  

बात 2011..12 की होगी। उन्नाव से अहमदाबाद ट्रैन से आ रहा था। उन दिनों स्लीपर डिब्बे से चलना होता था। ट्रैन में बहुत सफर किया और अनुभव से जाना कि जिंदगी सही में स्लीपर डिब्बे में जीवन्त रहती है। 

सहयात्रियों बातचीत करते हुए सफर बड़े मजे में कट जाता है। कितने ही प्रकरण, किस्से सुने, सुनाये गए। जब से AC डिब्बों मे चलना शुरू हुआ, किसी सफर में 10 शब्द से ज्यादा न बोले गए होंगे। जाने कैसा ये बदलाव है.. शब्दों में भी इतनी मितव्ययिता..।

तो बात उस ट्रैन यात्रा की.. एक हमउम्र लड़का भी सामने बैठा था। बात फ़िल्मों की शुरू हो गयी। बातों बातों में उसने कहा-"गुलाल देखी?" 
मैंने कहा "नहीं"। नाम सुनकर लगा ये अपने टेस्ट की न होगी। गुलाल मतलब रंग..प्रेम मोहब्बत.. भई अपने को ऐसी फिल्में जरा भी न भाती। पर उस सहयात्री ने इतनी जबरदस्त तारीफ की मन हो रहा था कि काश अभी देख डाला जाय। 

खैर सफर खत्म हुआ और खोज शुरू हुई कि गुलाल फ़िल्म कैसे मिले। उन दिनों टोरेंट का दौर था। लोग फिल्मों को पेन ड्राइव / हार्ड डिस्क में लोड करके एक दूसरे से शेयर कर लिया करते थे। इसी किसी जुगाड़ से गुलाल फ़िल्म मिली होगी।
जिस दिन से मिली तब से आज तक दर्जनों बार देखी होगी। एक एक शब्द, डायलॉग रोंगटे खड़े कर देने वाले। समझ बढ़ी तो पता चला कि ये अनुराग कश्यप ने ही लिखी व बनाई है ,तो उनकी और भी फिल्में देख डाली। पर 'गुलाल' जैसी बात न मिली।

अहमदाबाद में ठेले वाले मोमफली के छोटे छोटे दानों वाली किस्म , बालू में गर्म करके बेचते हैं। उसका स्वाद आम मूमफली से कही हटके होता है, बहुत ही स्वादिष्ट। वो  चीज कहीं और देखी नहीं।मुझे वो बहुत पसंद थी। जिस वीकेंड पर ऑफिस से आते समय वो ठेलिया  दिख गयी तो समझो एक बेहतरीन शाम बन गयी।

वो छोटे वाले गर्मागर्म सिंग दाना (मूमफली), एक बियर की बेहद ठंडी बोतल और सामने टीवी/लैपटॉप पर गुलाल को मगन होके देखना...आय हाय मजे ही मजे।

फ़िल्म की शुरुआत में वो कमरा दिखाने वाला, बाँसुरी वाला, रानशा.. उसका वो डायलॉग..
जो कुछ न करता लॉ करने आता...दिलीप का होस्टल जाते वक्त रामलीला वाले पात्र..फिर कमरे में जो रैंगिग होती है..

दुबारा रानशा का दिलीप बदला लेने जाना  और मेरे पास मां है वाला डायलॉग.. हर दृश्य बड़ा ही गजब का है। 
केके मेनन, पीयूष मिश्रा और उनका वो अजीबोगरीब साथी..वो आरम्भ है प्रचंड वाला गाना.. माही गिल का अभिनय..

माही गिल को उसी टाइप के रोल में कई जगह देखा.. अपहरण, साहब बीबी गैंगेस्टर.. सब जगह मुझे परफेक्ट लगी। ऐसा लगता है कि फ़िल्म नहीं अपने आस पास को ही देख रहे हैं।

बातें तो बातें है उनका अंत कहाँ.. अब बाकी फिर कभी ..जैसे मुझे उस अजनबी से गुलाल जैसी मूवी मिली, आपको भी एक मूवी अनुशंसित करना चाहता हूँ.. "मनोरमा सिक्स फ़ीट अंडर"। आप भी कुछ इस तरह के टेस्ट वाली मूवी बता सके तो जरूर बताइये...

विदा।


आशीष कुमार, उन्नाव। 
02अप्रैल, 2022। 

रविवार, 14 नवंबर 2021

Different people

भांति भांति के लोग

कुछ रोज हुए पर बात है कि जेहन से उतर ही नही रही। कोई तो था, सामने जो बातों में तल्लीन इस कदर था कि उसे जरा भी होश न था कि जाने अनजाने में क्या कर रहा है..

हम चाय या कॉफी पी रहे थे। सामने नमकीन भी थी, मिठाई भी थी। सामने बैठे शख्स के हाथों पर नजर गयी तो वो काजू कतली का एक टुकड़ा उठा कर मुँह में रखा, फिर चाय सिप की। यह घटनाक्रम फिर उसने दोहराया।
उस वक़्त से लेकर अभी तक यह न समझ आया कि यह कोई नया ट्रेंड तो न चल पड़ा है या फिर वो बातों में बहुत गहराई से डूब गया था। मीठी चाय के साथ मिठाई ..भगवान ही जाने ...यह नई लीला।

© आशीष कुमार, उन्नाव।
14 नवंबर, 2021।

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