दिव्या
- 1945 में लिखित बौद्धकालीन उपन्यास
- ' दिव्या ' इतिहास नही , ऐतिहासिक कल्पना मात्र है
- इतिहास विश्वास की नही , विश्लेष्ण की वस्तु है .
- मनुष्य भोक्ता नही करता है .
- यशपाल जी मार्क्सवादी विचारधारा के लेखक है , इस नावेल में इसी विचारधारा की पुष्टि होती है।
- बौद्ध धर्म , हिन्दू धर्म की विसंगतियों का चित्रण , चर्वाक दर्शन को सबसे ज्यादा महत्व
- ' मारिश' के विचार , एक प्रकार से यशपाल जी के विचार है।
- ' जन्म का अपराध ? ' कथानक के शुरु मे ही पृथुसेन के द्वारा , एक महत्वपूर्ण प्रश्न को उठाया गया है।
- ' देवता का विधान केवल विश्वास और अनुमान की वस्तु है ' कह कर यशपाल अपने समय की जटिल प्रश्नों से जूझने की कोशिस करते है।
- ' मै वर्ण का न्याय नही , धर्म का न्याय चाहता हूँ ' पृतुसेन
- ' मुर्ख , तू ने और तेरे स्वामी ने परलोक देखा है ? यह विश्वास ही तेरी दासता है। तू अपने पर स्वामी के अधिकार को स्वीकार करता है , यही तेरी दासता का बंधन है। ....... तू स्वत्रंत 'कर्ता' है। स्वत्रंता का अनुभव करना ही जीवन है----- चर्वाकवादी मारिश का कथन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें