BOOKS

रविवार, 4 फ़रवरी 2018

Muktibodh ki kvita

मर गया देश , जीवित रह गए तुम 


                  'आजकल' का प्रगतिवादी कवि मुक्तिबोध की जन्मशती पर केंद्रित अंक समय पर डाक द्वारा मिला। लेखों पर राय देने के पूर्व मै आजकल की पूरी टीम को उनकी मेहनत के लिए धन्यवाद देना चाहता हूँ विशेष रूप से पत्रिका की ऑनलाइन सदस्य्ता की सुविधा के लिए। इसके चलते पाठकों को बहुत ज्यादा सुविधा हुयी है। मैंने अपने कुछ मित्रो को इस सुविधा का लाभ दिलवाया है। 

                  'मुक्तिबोध' को आसानी से नहीं समझा जा सकता है। उनकी कविता की संवेदना , उनके फैंटेंसी शिल्प की समझ के लिए पाठक को बहुत गहराई में पैठना पड़ता है ठीक जैसे उनकी ब्रम्हराक्षस कविता में ब्रम्हराक्षस बावड़ी की गहन गहराइयों में डूबा हुआ है। मुक्तिबोध के लिए कविता समाज की दशा को सटीकता से दिखलाने तथा उसको वांछित दिशा देने का अचूक जरिया थी। उनके ही शब्दों में- 
" जो है उससे बेहतर चाहिए , 
पूरी दुनिया को साफ करने के लिए मेहतर चाहिए
और जो मै हो नहीं पाता हूँ। "  

         मुक्तिबोध की कविता में व्यक्ति व समाज की टकराहट है। वह बुद्धिजीवियों की निष्क्रियता, उदासीनता पर जमकर चोट करते है।  तभी वह लिखते है - 
"लिया बहुत बहुत , दिया बहुत कम 
अरे मर गया देश , जीवित रह गए तुम।।"

         इस अंक में रोचक व सरस् संपादकीय , डबराल जी के लेख की गहनता , प्रभा दीक्षित जी के लेख की रोचकता तथा सुनीता जी के संक्षिप्त किन्तु विशिष्ट लेख बहुत पसंद ही सुंदर बन पड़े है। रंगमंच पर कविता जी लेख मोहन राकेश जी के नाट्य कर्म को रोचकता से प्रस्तुत किया गया है। समग्रतः यह अंक पठनीय होने के साथ साथ संग्रहणीय बन पड़ा है।  

आशीष कुमार 
उन्नाव , उत्तर प्रदेश।  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Featured Post

SUCCESS TIPS BY NISHANT JAIN IAS 2015 ( RANK 13 )

मुझे किसी भी  सफल व्यक्ति की सबसे महतवपूर्ण बात उसके STRUGGLE  में दिखती है . इस साल के हिंदी माध्यम के टॉपर निशांत जैन की कहानी बहुत प्रेर...