क्या दया दुःख का कारण है ?
बहुत सी बाते हमे तब तक समझ न आती है जब तक स्वम अनुभव न की जाय। दो बरस पहले यही अहमदाबाद की बात है। दीपावली के २ या ३ रोज पहले की बात होगी। मेरे रूम पार्टनर मनोज श्रीवास्तव शाम को ऑफिस से लौट कर आये तो काफी परेशान थे। मुझे लगा कि हमेशा की तरह ऑफिस की प्रॉब्लम होगी पर उनकी परेशानी का कारण कुछ और था। दरअसल जब वह पैदल घर लौट रहे थे कुछ कुछ अधेरा हो गया था। उन्होंने एक बुढ़िया को सड़क के किनारे मिट्टी की दिवाली बेचते देखा था। एक दीपक जला कर वह बुढ़िया अपने दोनों पैरो बीच सर गड़ाए बैठी थी। बुढ़िया की अवस्था और गरीबी उनके मन को बहुत द्रवित कर दिया था। मुझे बार बार यही कह रहा था कि पता नही आज रात उसके पास क्या कुछ खाने को होगा। उसकी दिवाली कैसे मनेगी। उस रोज मुझे मनोज की बात का ज्यादा कुछ असर न हुआ था मुझे लगा पता नही इनको क्यू ऐसी चिता होने लगी।
पर जब चीजे सामने आती है तब आप उनसे निरपेक्ष नही रह सकते है। ऑफिस के करीब मै भी रहता हु और पैदल ही आता जाता हूँ। अहमदाबाद का सबसे पॉश एरिया मेमनगर को माना जाता है चारो तरफ आसमान से बाते करती इमारते खड़ी है। सारे शहर के लोग यहाँ पर शॉपिंग करने आते है। देर रात तक चहल पहल बनी रहती है। यही मानव मंदिर के पास साम्राज्य टावर है १०, १० मंजिल के ५ , ६ ब्लॉक होंगे। अंदर स्वीमिंग पूल भी है। वीक एंड पर मैं भी वहाँ स्वीमिंग करने चला जाता हूँ। पर इस टॉवर के बाहर वो बैठता है. रोज तो नही दिखता पर जिस रोज दिखता उस रोज सारा दिन उसके बारे में सोचता रहता हूँ। इतनी कड़ी धूप में वो सारा दिन कोने में बैठा रहता है। कई बार एक फटी टाट की पल्ली तान लेता है और अपने ग्राहकों का इंतजार करता है। मै एक पोलिश करने वाले , चप्पल सिलने वाले की बात कर रहा हूँ। सामने एक मैदान से होकर जब भी गुजरता हूँ हमेशा सोचता हूँ यह दिन में कितने रूपये कमा पाता होगा। १०० रूपये या २०० इसके घर में कौन कौन होगा। तरह तरह के प्रश्न , मुझे भी उस रोज की तरह जब मनोज परेशान था उलझन होती है। समझ में नही आता ये विद्रूपता क्यू है। इस चका चौंध भरे शहर में इनका जीवन कैसी बीतता होगा। आखिर क्यू ये हाशिये पर है। ऐसे समय में मुझे निराला जी की प्रसिद्ध कविता "वह तोड़ती पत्थर " याद आती है शायद ऐसे ही कुछ मनोभाव रहे होंगे उनके मन में। ऎसे लोग से निरपेक्ष न रह पाने के एक वजह और भी। आप उन्हें इतनी मेहनत करते देखते है उनकी काम में तल्लीनता आप का ध्यान खीच ही लेती है। हो सकता है आज इस पोस्ट के भाव को पूर्ण रूप में न ले पर एक रोज आप भी ऐसे ही किसी को देख कर दिल में रो देंगे। न जाने कब ये विषमता और गरीबी खत्म होगी।
यह वो नही है पर उसका के साथी है। एक रोज उसके पास बैठ कर गुरुकुल रोड में गुजरने वाली bmw , ऑडी , मर्सडीज को देखते हुए ऊपर लिखे मनोभावों को महसूस कर रहा था
बहुत सी बाते हमे तब तक समझ न आती है जब तक स्वम अनुभव न की जाय। दो बरस पहले यही अहमदाबाद की बात है। दीपावली के २ या ३ रोज पहले की बात होगी। मेरे रूम पार्टनर मनोज श्रीवास्तव शाम को ऑफिस से लौट कर आये तो काफी परेशान थे। मुझे लगा कि हमेशा की तरह ऑफिस की प्रॉब्लम होगी पर उनकी परेशानी का कारण कुछ और था। दरअसल जब वह पैदल घर लौट रहे थे कुछ कुछ अधेरा हो गया था। उन्होंने एक बुढ़िया को सड़क के किनारे मिट्टी की दिवाली बेचते देखा था। एक दीपक जला कर वह बुढ़िया अपने दोनों पैरो बीच सर गड़ाए बैठी थी। बुढ़िया की अवस्था और गरीबी उनके मन को बहुत द्रवित कर दिया था। मुझे बार बार यही कह रहा था कि पता नही आज रात उसके पास क्या कुछ खाने को होगा। उसकी दिवाली कैसे मनेगी। उस रोज मुझे मनोज की बात का ज्यादा कुछ असर न हुआ था मुझे लगा पता नही इनको क्यू ऐसी चिता होने लगी।
पर जब चीजे सामने आती है तब आप उनसे निरपेक्ष नही रह सकते है। ऑफिस के करीब मै भी रहता हु और पैदल ही आता जाता हूँ। अहमदाबाद का सबसे पॉश एरिया मेमनगर को माना जाता है चारो तरफ आसमान से बाते करती इमारते खड़ी है। सारे शहर के लोग यहाँ पर शॉपिंग करने आते है। देर रात तक चहल पहल बनी रहती है। यही मानव मंदिर के पास साम्राज्य टावर है १०, १० मंजिल के ५ , ६ ब्लॉक होंगे। अंदर स्वीमिंग पूल भी है। वीक एंड पर मैं भी वहाँ स्वीमिंग करने चला जाता हूँ। पर इस टॉवर के बाहर वो बैठता है. रोज तो नही दिखता पर जिस रोज दिखता उस रोज सारा दिन उसके बारे में सोचता रहता हूँ। इतनी कड़ी धूप में वो सारा दिन कोने में बैठा रहता है। कई बार एक फटी टाट की पल्ली तान लेता है और अपने ग्राहकों का इंतजार करता है। मै एक पोलिश करने वाले , चप्पल सिलने वाले की बात कर रहा हूँ। सामने एक मैदान से होकर जब भी गुजरता हूँ हमेशा सोचता हूँ यह दिन में कितने रूपये कमा पाता होगा। १०० रूपये या २०० इसके घर में कौन कौन होगा। तरह तरह के प्रश्न , मुझे भी उस रोज की तरह जब मनोज परेशान था उलझन होती है। समझ में नही आता ये विद्रूपता क्यू है। इस चका चौंध भरे शहर में इनका जीवन कैसी बीतता होगा। आखिर क्यू ये हाशिये पर है। ऐसे समय में मुझे निराला जी की प्रसिद्ध कविता "वह तोड़ती पत्थर " याद आती है शायद ऐसे ही कुछ मनोभाव रहे होंगे उनके मन में। ऎसे लोग से निरपेक्ष न रह पाने के एक वजह और भी। आप उन्हें इतनी मेहनत करते देखते है उनकी काम में तल्लीनता आप का ध्यान खीच ही लेती है। हो सकता है आज इस पोस्ट के भाव को पूर्ण रूप में न ले पर एक रोज आप भी ऐसे ही किसी को देख कर दिल में रो देंगे। न जाने कब ये विषमता और गरीबी खत्म होगी।
यह वो नही है पर उसका के साथी है। एक रोज उसके पास बैठ कर गुरुकुल रोड में गुजरने वाली bmw , ऑडी , मर्सडीज को देखते हुए ऊपर लिखे मनोभावों को महसूस कर रहा था