मुफ्त का यश
प्रेमचंद्र की एक कहानी है " मुफ्त का यश ". सिविल सेवा के पाठ्यक्रम (हिंदी साहित्य) में भी है। कहानी के शीर्षक से विषयवस्तु का पता चल जाता है। पिछले दिनों मुझे भी कुछ ऐसा ही महसूस हुआ। 28 अप्रैल को dd गिरनार ने सिविल सेवा 2017 में सफल होने के बाद मेरा इंटरव्यू मेरे घर आ कर लिया , जिसमें उन्होंने मेरे पड़ोसियों से भी मेरे विषय में पूछा और बात की।
मेरे सामने वाले फ्लैट में एक काकी रहती है , आयु 60 के आस पास होगी। दुबली पतली पर बहुत फुर्त। जब कभी मुझे मिलती तो एक सवाल जरूर पूछती - खाना बना रहे हो या होटल में खा रहे हो। कभी कभी कुछ और सवाल भी। उस रोज जब टीवी पर बोलने के लिए कहा गया तो दो पड़ोसी तैयार हो गए। एक पड़ोसी जो बैंक में काम करते है और पढ़े लिखे होने के बावजूद , टीवी पर बोलने के नाम से उनकी हिम्मत जवाब दे गयी. काफी जोर भी दिया तब भी वो नहीं -नहीं करते रहे।
काकी से पूछा गया तो क्या शानदार गुजराती में मेरे बारे में बताया। 6 साल से अहमदाबाद में रहने के दौरान मैं ज्यादा गुजराती बोल तो नहीं पाता पर समझ जरूर लेता हूँ। काकी कह रही थी कि यह लड़का बगैर आलस किये रोज पढ़ता था। चाहे रात का कितना ही वक़्त क्यू न हो इसकी लाइट जलती रहती थी। सुबह उठो तब भी जलती रहती थी। उस समय मैं उनसे कुछ कहना चाहता था पर चुप रहा।
दरअसल एक दिन उन्होंने पूछा था कि ये लाइट क्यू जलती रहती है रात में पढ़ते रहते हो क्या ? मैं समय बचाने के लिए पड़ोसियों से ज्यादा बोलने व घुलने मिलने में यकीन न करता था इसलिए संक्षेप में जबाब दिया था - हाँ। जबकि वो मेरे ड्राइंग रूम की लाइट थी जो फ्लैट में अंधरे से बचने के लिए हमेशा मैं जला क़र रखता था। पढ़ाई तो ज्यादातर लाइब्रेरी या अपने बैडरूम में ही करता था। काकी की याददाश्त बहुत अच्छी थी और मेरे बारे तमाम चीजे अपनी समझ से बहुत अच्छे से बगैर हिचके बोलती रही। उस दिन मुझे भी प्रेमचंद्र की समानुभूति हुयी। मुफ्त का यश की विषय वस्तु भी कुछ ऐसी ही है।
-आशीष कुमार
उन्नाव , उत्तर प्रदेश।
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