कविता 5 : हिसाब किताब
जब मैं कहता हूँ कि
तुम्हें पाने से पहले खो चुका हूँ
तो अक्सर तुम नहीं समझ पाती
कि मेरे कथन का निहितार्थ,
दरअसल तुम ज्यादा दूर की
सोचती ही नहीं,
नहीं बनाती हो लंबे चौड़े
सुव्यवस्थित, सौदेश्य नियम
तुम बस वर्तमान में जीती हो
हर पल, हर क्षण का रखती हो
पूरा हिसाब - किताब ।
मैं बनाता हूँ योजनाएं,
भविष्य के लिए तमाम नियम
सोचता हूँ हर पहलू को
विचार करता हूँ नियति व प्रारब्ध पर
मनन करता हूँ
तुम्हारे होने या न होने पर
इसलिए मेरे पास वर्तमान का कोई
हिसाब किताब न होता है।
प्रेम दोनों को है
बहुत गहरा,नियत व स्थायी
बस हिसाब किताब जरा सा
अलग थलग सा है।
28 दिसंबर , 2019
©आशीष कुमार, उन्नाव, उत्तर प्रदेश।
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