दौड़ : ममता कालिया का एक नावेल
काफी अरसे के बाद कोई हिंदी नावेल पढ़ा और उसे खत्म किया। काफी समय से उपन्यास खरीदता जा रहा था पर उनको शुरू कर कभी पूरी तरह से खत्म न कर पाता।
यह नावेल 2000 में प्रकाशित हुआ था। आकार में यह लघु उपन्यास है। इसकी विषय वस्तु बहुत ही रोचक व सारगर्भित है। ममता कालिया ने अपने समय की तमाम विडंबनाओं को इसमें समेट दिया है। पवन , उसके छोटे भाई सघन तथा इनके माता रेखा व पिता राकेश की कहानी पुरे उपन्यास में फैली है। एक संयोग ही है कि इसमें अहमदाबाद का जिक्र भी हुआ है। दरअसल मै पिछले 6 सालों से अहमदबाद में ही रह रहा हूँ तो कई प्रसंग जैसे मेम नगर , एलिस ब्रिज आदि मुझे काफी रोचक लगे। मेम नगर में मै 4 साल रहा भी हूँ।
पुरे नावेल में पीढ़ी अंतराल , बाजारवाद , उपभोक्तावाद के विविध पहलू छाये हुए है। पवन , अहमदाबाद mba करता है और नौकरी बदलता रहता है। स्टेला से शादी करना उसके लिए बस एक डील है। अपने परिवार की इच्छा के विपरीत सामूहिक विवाह में अपनी शादी करता है। दरअसल उन दोनों के पास वक़्त की बेहद कमी है। छोटा बेटा सघन चीन चला जाता है और उसके माता पिता , बूढ़ा बूढी कॉलोनी में अकेले रह जाते है। ममता कालिया ने इस लघु उपन्यास में यह दिखाया है कि लोगो के घरो में ओवन , वैक्यूम क्लीनर जैसी आधुनिक चीजे है पर उनके पास उनके बेटे नहीं है। एक जगह रेडीमेड बेटे का जिक्र कर ममता ने अपने समय की तमाम विद्रूपताओं को उजागर कर दिया है।
हालांकि मैंने काशी नाथ का नावेल रेहन पर रग्घू पढ़ा तो नहीं है पर उसमे भी इस तरह की समस्या को ही दिखाया गया है। दरअसल उदारीकरण के बाद जिस तरह से संयुक्त परिवार टूट कर एकल परिवार में बनने लगे और दो नौकरी का चलन बढ़ा उससे भारतीय समाज में पश्चिम जैसे समस्याओं की झलक मिलने लगी। सन 2002 के परिवेश को ममता ने इस लघु उपन्यास में समग्रता समेटने की कोशिश की है और वह इसमें पूर्णता सफल भी है। अगर आपको भी यह नावेल पढ़ना हो तो नीचें लिंक से फ्री में डाउनलोड कर सकते है।
आशीष कुमार
उन्नाव , उत्तर प्रदेश।
Very good
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