ख़ुदकुशी क्यों इतनी 26 मार्च 2018 अंक
ख़ुदकुशी के संदर्भ में हरिमोहन मिश्र जी का लेख , समकालीन समय की विसंगतियों को पारदर्शी चित्रण करता है। मानव जीवन अनमोल है और इस अनमोल जीवन को यूँ ही हार कर गवां देना उचित नहीं कहा जा सकता है। हमने समय से साथ खूब प्रगति की है पर अपने मानवीय मूल्यों में पिछड़ते जा रहे है। चाहे गांव हो या शहर , हर इंसान तेजी से भाग रहा है। उपभोक्तावादी दौर में नूतन उत्पादों की अमिट लालसा , तमाम पैसे की ख्वाहिश , अपनी हैसियत से बड़े सपने आदि कुछ बिंदु है , जिनके चलते मानव सकून खोया है और तनाव पाया है। तनाव इतना चरम सीमा पर कि उचित -अनुचित का ख्याल रखे बगैर खुद के साथ साथ अपने परिवार को मार देना , जैसे रिवाज सा बनता जा रहा है। एक और महत्वपूर्ण बात , ऐसा नहीं है कि आत्महत्या करने वाले लोग पढ़े लिखे व समझदार लोग नहीं होते। पिछले साल बिहार के एक जिलाधिकारी ने दिल्ली जाकर आत्महत्या को चुना। उन्होंने मरने से पहले पुरे होशोहवास में नोट और वीडियो भी बनाया था। किसान से लेकर जिलाधिकारी तक आखिर आत्महत्या के चलन तेज होने की वजह क्या है ? दरअसल समाज में समरसता ,लगाव , आत्मीयता , भ्रातृत्व, सेवाभाव , सामाजिक उत्तरदायित्व , परोपकार जैसे गुणों का तेजी से क्षरण होने लगा है। एकाकीपन , अलगाव , अजनबीपन , पहचान का संकट , उपेक्षा , झूठी शान आदि के चलते समाज में आत्महत्या की दर तेजी से बढ़ी है। विकल्प यही हो सकता है कि हम भले चाँद , मंगल पर बस्ती बनाने का सपना भले रखे पर समाज में मुलभूत मानवीय गुणों को भी साथ लेकर चलने का प्रयास करें।
आशीष कुमार
उन्नाव , उत्तर प्रदेश।
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