चलो नर्मदा के तीरे ( 01 )
अहमदाबाद में डीविंग डीप नामक एक इवेंट टीम है जो समय समय पर प्रकृति संरक्षण के साथ साथ ट्रैकिंग ,हाईकिंग , कैंपिंग आदि एडवेंचर एक्टिविटी करवाती रहती है। एक बार पहले जब उनका थानगढ जाने का प्रोग्राम था तब जाते जाते रह गया था। इस बार भी लास्ट मोमेंट में उनकी फी पेमेंट की और छोटा उदयपुर जाने के लिए तैयार हो गया था। इस प्रोगाम में कैंपिंग , हाईकिंग , रिवर बाथ , स्क्रैम्ब्लिंग आदि गतिविधियाँ थी।
सुबह 8 बजे विजय चार रस्ते , अहमदाबाद पर मिलना था। मैं 30 मिनट पहले ही पहुंच गया। कुछ देर बाद एक एक कर 4 लड़के , 2 लड़कियाँ आयी। ट्रैकिंग पर जाने वाले लोग , अपने कपड़ों से दूर से ही पहचाने जा सकते है। हमने आपस में कुछ बात चीत की , परिचय का आदान प्रदान हुआ। उनमें ज्यादातर लोग , पहले भी इनके कार्यक्रम में जा चुके थे।
थोड़ी देर बाद टीम की ओर से एक मेंबर , तूफान ( फ़ोर्स कपंनी की एक बड़ी गाड़ी ) में सामान लादे आ गए। हमने अपने अपने बैग गाड़ी में चढ़ाये और निकल पड़े एक लॉग ड्राइव ( 220 किलोमीटर ) पर। अहमदाबाद - वडोदरा एक्सप्रेस वे के पास दो लोग और ज्वाइन किया। जाते समय हम लगभग चुप ही थे। जब हम छोटा उदेपुर ( गुजरात की महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश सीमा सा लगता एक जिला ) पहुंचे तब टीम मेंबर ने गाड़ी रुका कर खाना पैक कराने चले गए। इस समय तक काफी भूख लग आयी थी। सोचा कि किसी होटल में खाना होगा पर। खाना पैक कराने के बाद वो लौटे तो बोले कि अभी 1 घंटे बाद खाना खाएंगे।
लगभग 1 .30 घंटे बाद हम एक जगह रुके। यहाँ लगभग हम छोटे कसबे / गावँ जैसी जगह पर थे। सड़क किनारे एक दुकान के पीछे , जमीन पर बैठ कर हमने घर का बना खाना खाया। पूड़ी , आलू टमाटर की सुखी सब्जी , गुड़ , दाल फ्राई ( इसे होटल से लिया गया था बाकि घर से बनवाकर कर लाया गया था ) . खाना खाने की बाद कुछ सुस्ती आ गयी। अभी भी हमें 1 घंटा और आगे जाना था। कवांट (छोटा उदयपुर) कसबे के आगे से पहाड़ियाँ शुरू हो गयी। रोड की हालत काफी हद तक ठीक थी पर बहुत उतार चढ़ाव से भरी।
अंततः हम अपनी मंजिल पहुंचे। हफेश्वर मंदिर के थोड़ा आगे नर्मदा नदी के किनारे हमने अपनी गाड़ी छोड़ दी। यहाँ से आगे हमें बोट में जाना था। हमारे साथ काफी सामान(टेंट , खाना बनाने का सामान , बर्तन , पानी की 2 बड़ी बोतले ) था जिसे हमने ह्यूमन चैन बनाकर कर बोट में लादा। बोट में बैठते ही हम सबकी आँखो को काली पट्टी से ढक दिया गया ताकि हम पूरी तरह से नर्मदा के सौंदर्य का आनंद ले सके। बोट में हमें 45 मिनट की यात्रा करनी थी।
अंततः हम अपनी मंजिल पहुंचे। हफेश्वर मंदिर के थोड़ा आगे नर्मदा नदी के किनारे हमने अपनी गाड़ी छोड़ दी। यहाँ से आगे हमें बोट में जाना था। हमारे साथ काफी सामान(टेंट , खाना बनाने का सामान , बर्तन , पानी की 2 बड़ी बोतले ) था जिसे हमने ह्यूमन चैन बनाकर कर बोट में लादा। बोट में बैठते ही हम सबकी आँखो को काली पट्टी से ढक दिया गया ताकि हम पूरी तरह से नर्मदा के सौंदर्य का आनंद ले सके। बोट में हमें 45 मिनट की यात्रा करनी थी।
30 मिनट बाद जब हमारी आँखो से पट्टी खोली गयी तो हम पानी के बीच में थे और चारों तरफ पहाड़ियां थी। नदी के अदभुत सौंदर्य मन के भीतर तक उतर गया। नर्मदा , मेरे अनुमान से कही ज्यादा ही बड़ी थी। लगभग 15 मिनट बाद हम टापू पर उतरे। सामान उतारा। इसके बाद हमें नदी में नहाना था। इस समय शाम के 4 / 5 बज रहे होंगे। स्वीमिंग के लिए मैं अपनी ड्रेस ले कर गया था। पहले तो काफी ठण्ड लगी पर जब एक बाद नदी में उतर गए तो उससे निकलने का मन न हुआ। यहाँ पर भी बड़ी अनोखी चीज लगी।
नर्मदा बहुत ही गहरी नदी है। हम जिस जगह थे वो पहाड़ो के बीच में थी। किनारे से 3 , 4 फुट पानी में जाते ही नदी बहुत ही गहरी हो जाती थी। जिसे तैरना आता था वो कुछ दूर तक गए। हम 3 लोग ही तैर पाते थे। यहाँ पर हमने दो खेल खेले। एक पानी के अंदर अपनी साँस देर तक रोकनी थी। इसमें मुझे ही जीतना था। दूसरा खेल ईहा , उहा नामक था , उसका एक्सप्लनेशन गुजराती में था , समझ में न आने के बावजूद इसमें भी मै अच्छा खेला। हमारे साथ मुझको छोड़ कर लगभग सभी लोग शहरी लोग थे इसलिए उनके लिए यह सब चीजें के बहुत मायने थे। मैंने तो जीवन के 16 साल पूरी तरह से गांव में गुजारे हैं और तालाब , नदी में खूब नहाया है।
नर्मदा बहुत ही गहरी नदी है। हम जिस जगह थे वो पहाड़ो के बीच में थी। किनारे से 3 , 4 फुट पानी में जाते ही नदी बहुत ही गहरी हो जाती थी। जिसे तैरना आता था वो कुछ दूर तक गए। हम 3 लोग ही तैर पाते थे। यहाँ पर हमने दो खेल खेले। एक पानी के अंदर अपनी साँस देर तक रोकनी थी। इसमें मुझे ही जीतना था। दूसरा खेल ईहा , उहा नामक था , उसका एक्सप्लनेशन गुजराती में था , समझ में न आने के बावजूद इसमें भी मै अच्छा खेला। हमारे साथ मुझको छोड़ कर लगभग सभी लोग शहरी लोग थे इसलिए उनके लिए यह सब चीजें के बहुत मायने थे। मैंने तो जीवन के 16 साल पूरी तरह से गांव में गुजारे हैं और तालाब , नदी में खूब नहाया है।
(चित्र में : पनिया )
नदी से निकल कर हमें टेंट लगाने थे। टेंट दो तरह के थे। मैंने पहली बार उन्हें लगाना सीखा। इसके बाद हमें उसी टापू पर अपने लिए खाना बनाना था। हमारे बोट में जो आदमी उसे चला कर लाया था। उसने कुछ लकड़ियां, उपले जुटाए और उधर की स्थानीय डिश पनिया बनाने में लग गया। वो मक्के के आटे को नमक के साथ मिलाकर मोटी पर छोटी रोटी बना रहा था। मैंने उसके साथ जाकर कुछ पनिया बनवायी। इन्हें पत्तों के बीच रख कर उपलों की आग में पकाया जाना था।
( जारी------------)
© आशीष कुमार , उन्नाव , उत्तर प्रदेश।
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© आशीष कुमार , उन्नाव , उत्तर प्रदेश।
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