सोमवार, 10 दिसंबर 2018

Story of an innocent boy

एक मासूम लड़के की कहानी 

लगभग चार साल हुए होंगे यही अहमदाबाद की ही बात है। एक महीने के लिए मुझे डोरमेन्ट्री में रहना पड़ा था। वही उससे मुलकात हुयी थी। मेरे बेड के पास ही उसका बेड था। जब परिचय की बात आती है तो मेरी कोशिश रहती है कि जॉब के बारे में बात न करू। जॉब प्रोफाइल के बारे में बात न करने के कुछ विशेष कारण है -हमारे समाज में आज भी खाकी यूनिफार्म और तीन स्टार का कुछ ज्यादा ही महत्व है। पोस्ट के बारे बगैर कुछ जाने कई बार काफी लोग ने उम्मीद लगा ली कि ट्रैफिक वाला अगर पकड़ेगा तो मेरा एक फ़ोन ही काफी होगा। कुछ ऐसे प्रकरण पहले हो चुके थे इसलिए मैंने वहां बोला कि लिखता हूँ। 

बगल वाले मित्र , अहमदाबाद में बैंक की परीक्षा की तैयारी करने के लिए आये थे। कुछ किताबे उनके बेड पर पड़ी थी। मैंने उनसे एक दो सरल सवाल पूछे   वो  बता न पाए। एक दो दिन बाद शाम को मुझसे बोला कि पार्क चलते है घूमने के लिए। पार्क में जाते ही वो मित्र  कहने लगे कि आप से मुझे कुछ विशेष बात करनी है आप तो कहानी लिखते हो , मेरी भी कहानी सुन लो और बताओ मैं क्या करू ? 

उस दिन अपने कुछ सरल से सवाल पूछे थे तो मैं केवल तनाव के चलते नहीं बता पाया था। मैं इन दिनों बहुत तनाव से गुजर रहा हूँ। मैंने कहा कि आप पूरी बात बताओ। उस शाम की पार्क में बात और बाद में कई बातों को जोड़कर यह कहानी बनती है। 

वो महाराष्ट्र (गुजरात सीमा के करीब ) के रहने वाले थे. अपने परिवार के अकेले लड़के थे।  घर में खेती बारी खूब थी। गन्ने की खेती से अच्छी आय होती थी. तीन खंड का बढ़िया मकान बना था। उनकी शादी  गुजरात में रहने वाली लड़की से तय थी. मित्र बहुत ही सीधे -भोले भाले किस्म के थे। पढ़ाई ठीक ठाक कर ली थी पर जॉब करने का कोई इरादा न था। अकेले लड़के थे तो घर में रहकर ही माता पिता की सेवा करने का इरादा था। 

लड़की जरा तेज थी। उनकी इंगेजमेंट हो गयी थी। लड़की ने मित्र पर दबाव डाला कि जब तक जॉब नहीं करोगे मैं शादी नहीं करूंगा। वो बेचारे पहले कुछ दिन किसी फार्मा कंपनी में 10 -१२ हजार वाली जॉब में लग गए। घर में सालाना 10 से 15 लाख की आमदनी थी , इसके बावजूद वो लड़की के दबाव के चलते नौकरी करने लग गए। लड़की ने कहा कि सरकारी नौकरी करो। इसके लिए ही वो अहमदाबाद आये थे और बैंक की परीक्षा के लिए कोचिंग कर रहे थे।  

अब मुझे ठीक से याद नहीं आ रहा है पर पूरा प्रकरण उन्होंने बताया था। उनको पता चला कि लड़की , किसी गैर जाति के लड़के से जुडी है और उसके साथ घूमती फिरती है। इसके बाद वो खुद काफी जानकारी जुटाई थी , मुझे कई स्क्रीन शॉट दिखाई कि यह इतनी रात तक व्हाट एप पर ऑनलाइन थी और न जाने क्या क्या। सगाई , इनके साथ हुयी थी और इनको अपने गांव , समाज में इज्जत बड़ी प्यारी थी। 

मैंने कहा कि रिश्ता तोड़ दो तो वो बोले कि नहीं तोड़ सकता। दरअसल लड़के के परिवार की कोई बहन , इनके भावी पत्नी की ओर शादी की गयी थी। मित्र को डर था कि अगर मैंने रिश्ता तोडा तो मेरी बहन को परेशान कर सकते है। 

पहले लड़की मना करती रही कि उसका कोई चककर नहीं है पर एक बार मित्र जब किसी पार्क में मिलने गए तो लड़की ने स्वीकार कर लिया कि हाँ वो किसी लड़के से बहुत प्यार करती है  और उसी से शादी करना चाहती है  केवल घर वालों के दबाव में ही  सगाई की थी। लड़का यह सुनकर बहुत दुखी हुआ और सब जानने  ( दैहिक सम्बन्ध ) के बावजूद उस लड़की से बोला कि तुम्हारे कल से कोई मतलब नहीं , आज से नई रिश्ते की शुरुआत करो। प्यार अँधा होता है। लड़की मानी नहीं। वो अपने घर में कुछ न कहती पर मित्र , उसकी हरकतों से मानसिक प्रताड़ना से गुजर रहा था। 

तमाम बातें है , सबका उल्लेख करना जरूरी नहीं है। मित्र को यह भी तनाव था कि उनकी होने वाली बहू के बारे में जब उनके बूढ़े माता पिता को पता चलेगा  तो उनके परिवार की साख मिट्टी में मिल जाएगी। 

जैसा कि मैंने पहले बताया है कि मैं वहाँ बस एक माह रहा था पर मित्र बहुत गहरे से जुड़ गए थे। सम्पर्क बना रहा। मुझे सरल , सीधे साधे लोगों से जुड़ना बहुत अच्छा लगता है, होशियार , मौक़ापरशत लोगों  से जुड़ भी जाऊ तो भी रिश्ते में गर्मजोशी नहीं दिखाता। मित्र से भले काफी अंतराल तक बात भले न हो पर दिल के बहुत करीब है। दरअसल आज के समय में , सरल स्वभाव के लोग दुर्लभ से हैं।  

मित्र भी कुछ महीने बाद अपने गांव चले गए। फ़ोन पर बात करते रहते। मुझे उनकी कहानी का अंत जानने की बड़ी इच्छा थी। एक रोज उनका फ़ोन आया - आशीष भाई अमुक तारीख को मेरी शादी है आप आना जरूर है। बहुत खुश थे। मैंने पूछा - उसी लड़की से हो रही है शादी। वो बोले नहीं। मित्र ने मुझे बाद का कुछ विवरण दिया। 

जब लड़की की हरकते बहुत बढ़ गयी तब लड़के ने अपने समाज की पंचायत बुलाई। लड़की ने बड़ा हगांमा किया कि सब झूठे आरोप है पर पंचायत सभी बातों को समझकर  सगाई तोड़ने का फैसला दिया । इसके बाद मित्र ने एक गरीब घर की होनहार, सुशील  लड़की (मित्र बुलाते रहते है कि आपकी भाभी बहुत तरह की आइसक्रीम बनाना जानती है )  से दहेजरहित  शादी की। वो मित्र बहुत खुश थे। कई  दिनों के लिए  पहाड़ी जगहों पर हनीमून के लिए गए।  

पहली लड़की , अपने प्रेमी की कार , कपड़े देखकर उसे बहुत आमिर समझ बैठी थी । मित्र गांव से जरूर थे पर ठोस आर्थिक स्थिति थी उनकी। दिखावे पर यकीन न था अन्यथा उनकी हैसियत तो ऑडी /मर्सडीज की थी। 

शादी में जा न सका पर आज भी उनके यदा कदा फोन आ जाते है। अब उनका एक बेटा भी है। एक खुशहाल जिंदगी जी रहे है।  तनाव के दिनों में वो कहते थे कि आशीष भाई , मैं अपनी कहानी सावधान इंडिया / क्राइम पेट्रोल में दूँगा ताकि पता चले कि इस तरह के प्रकरणो में लड़के कितना अपसेट होते हैं। सावधान इंडिया में कहानी गयी या नहीं गयी पता नहीं पर मैंने उनसे वादा किया था कि आप की बात मैं अपने पाठकों तक जरूर पहुँचाऊँगा।

© आशीष कुमार , उन्नाव , उत्तर प्रदेश।  

बुधवार, 28 नवंबर 2018

letter in AJKAL


'आजकल' का हिंदी की सुप्रसद्धि रचनाकार कृष्णा सोबती जी पर क्रेन्द्रित फरवरी अंक प्राप्त हुआ। कृष्णा सोबती के बारे में इतने अच्छे लेखों को एक साथ पाकर बहुत अच्छा लगा। कृष्णा  सोबती , आजादी के समय से लेकर अब तक  स्त्री स्वातंत्र्य की सबसे प्रबल   रचनाकार  रही है। उनके उपन्यासों , कहानी के पात्र अपनी जीवटता , जीवन के राग-रस के परिपूर्ण , पाठकों के मन पर अमिट छाप छोड़ जाते है। 

आशीष कुमार 
उन्नाव , उत्तर प्रदेश। 

letter in outlook



4 जून 2018 का आउटलुक हिंदी का अंक मिला। पत्रिका में तमाम लेखों के बीच बशीर बद्र के बारे में लेख दिल को छू गया। अब वैसे फनकार क्यू नहीं मिलते। आरुषि बेदी का एड्स पर विस्तृत लेख , समकालीन समय में एड्स पीड़ितों की यथास्थिति को बयाँ करता है। देश में एड्स पीड़ितों की मार्मिक हालत जानकर गहरा दुःख हुआ। देश की तमाम प्रगति , चमक के बीच उन मरीजों की ऐसी दशा एक दाग सरीखा है। ऐसे में समाज के बीच से तमाम लोगों को निकल कर आगे आना ही होगा ताकि भारत में एड्स पीड़ितों की हालत में सुधार हो सके।  

आशीष कुमार ,
उन्नाव , उत्तर प्रदेश। 

letter in Kadambini


मंच 
कादम्बिनी का "अपनी अपनी आजादी " पर क्रेन्द्रित अगस्त 2018 अंक पढ़ा। इस पत्रिका का काफी पुराना पाठक हूँ पर पत्र पहली बार लिख रहा हूँ। कादम्बिनी पत्रिका समकालीन समय में प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं में कई मायनों में अनूठी है। विषयवस्तु के अनुरूप गंभीर , शोधपरक लेखों के साथ , संवेदनाओं से पूरित साहित्यिक कहानियों तथा रोचक नियमित स्तंभ, इस पत्रिका को सर्वश्रेष्ठ बनाते है। इस अंक में आजादी के सही मायने क्या है और हो सकते है , समग्रता से विमर्श किया गया है। अलविदा कहानी बहुत पसंद आयी।  

आशीष कुमार , 
उन्नाव, उत्तर प्रदेश    

Letter in Sarita



बुद्धिजीवियों के विचारों पर पहरेदारी 

देश की सर्वश्रेष्ठ वैचारिक पत्रिका सरिता के अक्टूबर (प्रथम ) 2018 अंक में भारत भूषण जी के लेख को पढ़ा। समकालीन समय की विसंगति को यह लेख बखूबी दिखलाता है। निश्चित तौर पर अभिव्यक्ति की आजादी, ही किसी देश के लोकत्रांत्रिक मूल्यों का सही मायने में पैमाना होती है। 

देश के संविधान में अनुच्छेद 19 में अभिव्यक्ति की आजादी को भारतीय नागरिकों को मूल अधिकार के रूप में उपलब्ध कराई गयी है। इसमें कुछ शर्तों का भी उल्लेख है। अक्सर देखा गया है कि इन्हीं शर्तो के आधार पर , समय समय पर नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी को कुचला जाता रहा है। 

ऐसे में लोकत्रंत के तीसरे स्तम्भ व संविधान की सटीक व्याख्या करने का अधिकार रखने वाली  न्यापालिका का दायित्व व जबाबदेही सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है कि वह भारत में यहाँ के नागरिकों को सही मायने में अपनी बात रखने का माहौल बनाये रखने में मदद करे। प्रसंगवश मुझे किसी कवि की बड़ी गहरी पंक्तियाँ याद आ रही है - 

बुरे लोग दुनिया का खतरा नहीं , 
शरीफों की चुप्पी खतरनाक है। 

आज जब मीडिया सस्थानों की भूमिका पर अक्सर सवाल खड़े किये जा रहे है , दिल्ली प्रेस समूह की पत्रिकाओं विशेषकर सरिता में ऐसे ज्वलंत लेख पढ़कर बहुत अच्छा लगा। संपादक महोदय व उनकी टीम को हार्दिक धन्यवाद ।  

आशीष कुमार , 



ईमेल - ashunao@gmail.com

इंडिया टुडे : a letter


इंडिया टुडे के  15 अगस्त अंक वाले अंक में मुजफ्फरपुर कांड के बारे में पढ़ का मन बहुत द्रवित हुआ। अगस्त महीने में हम आजादी का जश्न मनाते है पर उन मासूमों का क्या , जो शोषण के कुचक्र का शिकार बनें हैं।

आशीष कुमार , उन्नाव उत्तर प्रदेश। 

Chalo Narmda ke tire : 02

                           यात्रा वृतांत:  चलो नर्मदा के तीरे ( 02 )

दूसरी ओर खिचड़ी बनायी जा रही थी। मैंने कहा कि सब्जी मैं ही बनाऊंगा। पाठक जानते ही होंगे कि मुझे अच्छा खाना खाने के साथ साथ , लजीज स्वादिष्ट खाना बनाने का का बहुत शौक है। आलू , टमाटर , गाजर की रसेदार सब्जी बननी थी। लगभग 10 लोग के लिए मेरे लिए पहली बार खाना बनाना था। ज्यादातर लोगों के लिए यह पहली बार अनुभव था। प्याज , आलू , गाजर , अदरक काटने में कुछ और लोगों को लगवाया। उधर  दूसरी टीम ने खिचड़ी पका ली थी। इसके बाद मैं उधर बैठा , बाकि दो लोगों को चूल्हा जलाने के लिए लगाया। सबसे बड़ी मुश्किल यही थी। उधर पनिया भी पक चुकी थी। हम प्याज भूनने में ही लगे थे।

 मैं अपनी टीम मेमबर को समझा रहा था कि रसेदार सब्जी बनाने में सबसे महत्वपूर्ण होता है , प्याज को अच्छे से भूनना। इसमें बड़े धर्य की जरूरत होती है। सारे दिन की थकान के साथ अब धैर्य किसी पास न बचा था. एक मित्र आकर कहने लगे सब एक साथ डाल दो। नहीं अब मसाला पकाना , फिर टमाटर गलाना तब गाजर उसके बाद आलू पड़ेगी। उधर पनिया ठंडी होने लगी थी।  सब्जी बनने में 40 मिनट लगा होगा। सबने खाने की तारीफ की। सब्जी इतनी अच्छी बनी थी कि कम पड़ गयी दूसरी ओर खिचड़ी लेने के लिए कोई भी इच्छुक न था। हमने आलू भी भुने थे। 

खाने के बाद पास की पहाड़ी पर हाईकिंग करनी थी।  रात गहरी थी पर चाँद साथ दे रहा था। पहाड़ी पर खड़ी चढ़ाई थी। ऊपर पहुंचने में पूरी दम निकल गयी। सॉस फूल गयी। ऊपर पहाड़ी पर से नर्मदा के पानी पर चाँदनी की छटा , अद्भुत , अविस्मरणीय व बड़ी ही मोहक लग रही थी। ऊपर 30 मिनट रुके और  अपने वजूद को जानने , पहचाने की कोशिस की। नीचे आते आते पूरी तरह से थक चुके थे।टेंट के  स्लीपिंग बैग में पहली बार सोया, काफी देर तक जमीन की चुभन महसूस होती रही और अंततः गहरी नींद में चला गया। 

सुबह उठा तो सूर्य निकल चूका था। सूरज , की छवि , नर्मदा के पानी पर बड़ी सुंदर लग रही थी। दूर कुछ छोटी नावों में मछुवारे मछली पकड़ रहे थे। हमने टी चाय बनाई , ब्रेड सैंडविच , केले आदि का नाश्ता किया। एक बार हम फिर उसी पास वाली पहाड़ी के ऊपर तक गए , कुछ देर ऊपर रुके। नीचे आकर अपनी पैकिंग शुरू कर दी। जब हम बोट में अपनी समान चढ़ा रहे थे तब मैंने उसमे तीन बड़ी मछलियाँ देखी। बोट में एक तराजू भी लगा था। कल मैं जब बोट में आया था तो उस वक़्त भी जिज्ञासा  हुयी थी कि इसकी यहाँ क्या जरूरत।  

जब हम वापस लौट रहे थे तो किनारे से छोटी नाव लेकर कुछ लड़के हमारे बोट की तरफ आते, वो हमारे बोट मालिक को मछली बेचते। इस तरह से हमारा बोट मालिक दोहरे काम में लगा था। वापस हम अपनी गाड़ी के पास और उसमें सामान लादा। मुझे लगा कि हमारा टूर खत्म हो गया है पर भी दिन में एक एक्टिविटी होनी थी. 

हम करीब १ बजे एक जगह पहुंचे जहाँ हमे स्क्रबंलिंग करनी थी।  स्क्रैम्ब्लिंग मतलब किसी हाथों व पैरों के सहारे चढ़ाई करना। जगह का नाम ठीक से पता नहीं पर यह अभी कम व्यस्त जगह है। सामने चट्टानी पहाड़ दिख रह था। 

                                                            ( जहाँ हमने स्क्रेम्लिंग की )

नीचे हमने वहाँ के परिवार से खाना बनवाया। खाना खाकर , हम तुरंत पहाड़ी पर चढ़ने चले गए। यह काफी थकान भरा कार्य था और काफी हद तक जोखिम से भरा। कई बार जूते फिसले , हाथों में खरोच आयी पर रोमांच के लिए थोड़ी से चोट की परवाह किसे। काफी ऊपर तक गए पर सबसे ऊपर तक न जा सके क्योकि शाम होने को आयी। ऊपर कुछ देर रुककर हम वपिस नीचे आ गए। हम बुरी तरह से थक कर चूर थे।

रास्ते में हमने एक जगह रुक चाय पी। लौटते वक़्त हम सब काफी मुखर हो चुके थे। तमाम हुयी फिल्मों  पर , सीरियल पर , गानों पर। जब हम अहमदाबाद पहुंचे तो रात के 10.30 बजे थे। मुझे घर पहुंचते -पहुंचते 12 बज गए। इस तरह से हमारी दो दिन की रोमांचक यात्रा का अंत हुआ।  


(समाप्त ) 
© आशीष कुमार , उन्नाव , उत्तर प्रदेश।  

Chlo Narmada ke tire : my first tracking and hiking


चलो नर्मदा के तीरे ( 01 )

अहमदाबाद में डीविंग डीप नामक एक इवेंट टीम है जो समय समय पर प्रकृति संरक्षण के साथ साथ ट्रैकिंग ,हाईकिंग , कैंपिंग आदि एडवेंचर एक्टिविटी करवाती रहती है। एक बार पहले जब उनका थानगढ जाने का प्रोग्राम था तब जाते जाते रह गया था। इस बार भी लास्ट मोमेंट में उनकी फी पेमेंट की और छोटा उदयपुर जाने के लिए तैयार हो गया था। इस प्रोगाम में कैंपिंग , हाईकिंग , रिवर बाथ , स्क्रैम्ब्लिंग आदि गतिविधियाँ थी। 

सुबह 8 बजे  विजय चार रस्ते , अहमदाबाद पर मिलना था। मैं 30 मिनट पहले ही पहुंच गया। कुछ देर बाद एक एक कर 4 लड़के , 2 लड़कियाँ आयी। ट्रैकिंग पर जाने वाले लोग , अपने कपड़ों से दूर से ही पहचाने जा सकते है। हमने आपस में कुछ बात चीत की , परिचय का आदान प्रदान हुआ। उनमें ज्यादातर लोग , पहले भी इनके कार्यक्रम में जा चुके थे। 

थोड़ी देर बाद टीम की ओर से एक मेंबर , तूफान ( फ़ोर्स कपंनी की एक बड़ी गाड़ी ) में सामान लादे आ गए। हमने अपने अपने बैग गाड़ी में चढ़ाये और निकल पड़े एक लॉग ड्राइव ( 220 किलोमीटर ) पर। अहमदाबाद - वडोदरा एक्सप्रेस वे के पास दो लोग और ज्वाइन किया। जाते समय हम लगभग चुप ही थे। जब हम छोटा उदेपुर ( गुजरात की महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश सीमा सा लगता एक जिला ) पहुंचे तब टीम मेंबर ने गाड़ी रुका कर खाना पैक कराने चले गए। इस समय तक काफी भूख लग आयी थी। सोचा कि किसी होटल में खाना होगा पर।  खाना पैक कराने के बाद वो लौटे तो बोले कि अभी 1 घंटे बाद खाना खाएंगे। 


लगभग 1 .30 घंटे बाद हम एक जगह रुके। यहाँ लगभग हम छोटे कसबे / गावँ जैसी जगह पर थे। सड़क किनारे एक दुकान के पीछे , जमीन पर बैठ कर हमने घर का बना खाना खाया। पूड़ी , आलू टमाटर की सुखी सब्जी , गुड़ , दाल फ्राई ( इसे होटल से लिया गया था बाकि घर से बनवाकर कर लाया गया था ) . खाना खाने की बाद कुछ सुस्ती आ गयी। अभी भी हमें 1 घंटा और आगे जाना था। कवांट (छोटा उदयपुर) कसबे के आगे से पहाड़ियाँ शुरू हो गयी। रोड की हालत काफी हद तक ठीक थी पर बहुत उतार चढ़ाव से भरी। 

अंततः हम अपनी मंजिल पहुंचे। हफेश्वर मंदिर के थोड़ा आगे नर्मदा नदी के किनारे हमने अपनी गाड़ी छोड़ दी। यहाँ से आगे हमें बोट में जाना था। हमारे साथ काफी सामान(टेंट , खाना बनाने का सामान , बर्तन , पानी की 2 बड़ी बोतले ) था जिसे हमने ह्यूमन चैन बनाकर कर बोट में लादा। बोट में बैठते ही हम सबकी आँखो को काली पट्टी से ढक दिया गया ताकि हम पूरी तरह से नर्मदा के सौंदर्य का आनंद ले सके। बोट में हमें 45 मिनट की यात्रा करनी थी।  

30 मिनट बाद जब हमारी आँखो से पट्टी खोली गयी तो हम पानी के बीच में थे और चारों तरफ पहाड़ियां थी। नदी के अदभुत सौंदर्य मन के भीतर तक उतर गया। नर्मदा , मेरे अनुमान से कही ज्यादा ही बड़ी थी। लगभग 15 मिनट बाद हम टापू पर उतरे। सामान उतारा। इसके बाद हमें नदी में नहाना था। इस समय शाम के 4 / 5  बज रहे होंगे। स्वीमिंग के लिए मैं अपनी ड्रेस ले कर गया था। पहले तो काफी ठण्ड लगी पर जब एक बाद नदी में उतर गए तो उससे निकलने का मन न हुआ। यहाँ पर भी बड़ी अनोखी चीज लगी। 

नर्मदा बहुत ही गहरी नदी है। हम जिस जगह थे वो पहाड़ो के बीच में थी। किनारे से 3 , 4  फुट पानी में जाते ही नदी बहुत ही गहरी हो जाती थी। जिसे तैरना आता था वो कुछ दूर तक गए। हम 3 लोग ही तैर पाते थे। यहाँ पर हमने दो खेल खेले। एक पानी के अंदर अपनी साँस देर तक रोकनी थी। इसमें मुझे ही जीतना था। दूसरा खेल ईहा , उहा नामक था , उसका एक्सप्लनेशन गुजराती में था , समझ में न आने के बावजूद इसमें भी मै  अच्छा खेला। हमारे साथ मुझको छोड़ कर लगभग सभी लोग शहरी लोग थे इसलिए उनके लिए यह सब चीजें के बहुत मायने थे। मैंने तो जीवन के 16 साल पूरी तरह से गांव में गुजारे हैं  और तालाब , नदी में खूब नहाया है।  


(चित्र में : पनिया )

नदी से निकल कर हमें टेंट लगाने थे।  टेंट दो तरह के थे। मैंने पहली बार उन्हें लगाना सीखा। इसके बाद हमें उसी टापू पर अपने लिए खाना बनाना था। हमारे बोट में जो आदमी उसे चला कर लाया था। उसने कुछ लकड़ियां, उपले जुटाए और उधर की स्थानीय डिश पनिया बनाने में लग गया। वो मक्के के आटे को नमक के साथ मिलाकर मोटी पर छोटी रोटी बना रहा था। मैंने उसके साथ जाकर कुछ पनिया बनवायी। इन्हें पत्तों के बीच रख कर उपलों की आग में पकाया जाना था।  

( जारी------------)

© आशीष कुमार , उन्नाव , उत्तर प्रदेश।  

सोमवार, 26 नवंबर 2018

कविता : निष्पक्ष

निष्पक्ष

"पक्ष में होना सबसे आसान है
विपक्ष में जरा मुश्किल
पर, सबसे मुश्किल होता है
निष्पक्ष होना ।

सत्ता के साथ
अक्सर आ जाते है तमाम लोग
कम ही टिकते विपक्ष में
निष्पक्ष तो दुर्लभ से हैं ।"

© आशीष कुमार, उन्नाव, उत्तर प्रदेश।

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

Right or Wrong ?



सही या गलत ?

जब मेरा रिजल्ट आया तो आनन फानन में मीडिया में तमाम बातें आयी। कुछ खोजी , उत्साही पत्रकार मेरी बैकग्राउंड पता की और संसाधनहीनता को रेखांकित किया। मेरी पास ऐसी तमाम पेपर कटिंग है , जिसमें इस तरह की खबरे है। 

चिंतक जी आपको याद तो होंगे ही। उनकी सोच , दृश्टिकोण जमाने से अलग ही रहता है। उनकी सोच इस मुद्दे पर अलग ही थी। उनका कहना था कि आज जब तुम सक्षम हो तो फिर अपनी गरीबी , संघर्ष को क्यों  बताते हो। तुम्हारी कहानी से न जाने कितने ही लोग बर्बाद हो सकते है। 

मैनें उनसे कहा कि पहली बात मैं इस बात पे कही जोर नहीं देता कि मैं आज सक्षम नहीं हूँ। पत्रकार लोग ही ऐसी चीज चाहते है , जिससे उनसे खबरे बिके। दूसरी बात यह है कि प्रेरणा तो संघर्ष , गरीबी , जुझारूपन से ही मिलती है। 

हालांकि मैंने अपनी बात रखी  थी और आज भी उस बात पर कायम हूँ पर कही  न कही चिंतक जी की बात भी सही लगती रही। यही कारण है कि धीरे धीरे मैं इस पेज पर कम सक्रिय होने लगा। मुझे अक्सर इस चीज का अहसास होता है कि आम लोग या सीधा कहूँ तो गरीब युवा , मुझे उस स्तर का जुझारूपन  दिखता ही नहीं है जो आईएएस की परीक्षा में जरूरत होती है।

यह बात बिलकुल सच है कि जब मैंने सिविल में पहला एटेम्पट दिया तो मैं बेरोजगार था और जब सफल हुआ तो 7 साल एक बहुत ही अच्छी नौकरी करते हो चुके थे । आज मेरा स्टेटस पहले की तुलना में बहुत बदल चूका है पर मुझे आज की मेरी समृद्धि का , मेरे सिलेक्शन से कोई सम्बन्ध नहीं दिखाई देता है। इसीलिए मेरी नजर में उस तरह की न्यूज़ ( किसान का बेटा बना आईएएस ) में कोई खराबी नहीं दिखती। अगर ऐसी न्यूज़ न आये तो किसान के बेटा कभी आईएएस के बारे में सोच ही नहीं सकता है। 

हर व्यक्ति को अपनी जगह अच्छे से पता होनी चाहिए। अगर उसे लगता है कि उसका चयन जरूर होगा तो आर्थिक बैकग्राउंड से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन अपने विकल्प भी खोल के रखने चाहिए ताकि चिंतक जी जैसे लोग यह न सोचे कि आईएएस की तैयारी करने में कोई बर्बाद भी हो सकता है। 

समय कैसे लोगों की सोच बदल देता है इसका चिंतक जी से बढ़िया कोई उदाहरण नहीं हो सकता है। मेरे तमाम पाठकों के लिए चिंतक जी आदर्श थे क्योंकि वो गरीब होने के बावजूद हमेसा पोसिटिव रहते थे पर लगातार आईएएस pre में फ़ैल होने से उनके मन में नकारात्मक विचार भर गए है इसलिए  वो खुद इस बात को स्वीकार करने लगे है कि केवल आमिर लोग ही आईएएस के बारे में सोचे। गरीबों का सिलेक्शन इसमें नहीं होता है और  जो सफल गरीबी का रोना रोते है वो झूठे लोग होते है।

© आशीष कुमार , उन्नाव , उत्तर प्रदेश।    

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