जम्मू -कश्मीर : एक रिसता घाव
जटिल से जटिल समस्याओं को संवाद से हल किया जा सकता है न कि युद्ध से - लेक वालेसा ( पोलैंड )
जम्मू एवं कश्मीर भारत में विलय के समय से ही एक दुविधा में रहा है। महाराजा हरी सिंह ने तब आजाद रहना चाहा जब तक उन्हें पाकिस्तान से हमले का खतरा न लगा। इस तरह दुविधा में भारत में सम्मलित होने का कदम , आने वाले समय में कई तरह की मुसीबत पैदा करता रहा।
जम्मू एवं कश्मीर की जनता के लिए आजादी सबसे महत्वपूर्ण रही है। कई बार यह हर तरह की सीमा पार कर जाती रही है। लोकत्रंत में आपको अपनी आजादी के साथ कुछ हद तक समझौता करना ही पड़ता है विशेषकर जब जम्मू कश्मीर की भू-राजनीतिक स्थिति सभी मायनों में जुदा है।
जनता आजादी चाहती है इसलिए पत्थर फेकती है , सेना कार्यवाही करती है क्यूकि जनता कानून अपने हाथ में ले लेती है। कहने का आशय यह कि दोनों पक्ष ही अपने कार्यो को उचित ठहराते है। यह काफी लम्बे समय से चला आ रहा है और अगर स्थिति नहीं बदली है तो कही न कहीं शासन की पहुंच जनता तक न हो पायी।
तर्क और कुतर्क से ऊपर उठ कर हमें अपनी पहुंच वहां की जनता के प्रति ज्यादा बनानी होगी। शिक्षा , रोजगार , आधारभूत ढांचे के विकास , तकनीक , स्वास्थ्य सेवाये की उपलब्धता बढ़ानी होगी। भारत जम्मू व् कश्मीर में किसी भी अन्य राज्य की तुलना में ज्यादा धन ख़र्च करता है इसके बावजूद वहां पर चीजे बदल नहीं पा रही है तो हमे उन कारणों को खोजना होगा। कश्मीर की जनता को भी सोचना होगा कि आखिर क्या वजह है कि बुरहान वानी को हीरो बना दिया गया और उमर फैयाज को मार दिया गया। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि उमर फैयाज का रास्ता ही जम्मू कश्मीर के अस्तित्व की हिमायत करेगा न कि बुरहान वानी का।
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