BOOKS

शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

Mission Imposible :6

इथान हंट कभी आपको को निराश नहीं करते हैं


MI सीरीज के फ़िल्म की कुछ खास बातें होती हैं। फ़िल्म की शुरुआत में टॉम क्रूज किसी गुप्त, अनजानी जगह पर होते हैं। उन्हें उनकी एजेंसी IMF से संदेश मिलेगा, जो 5 सेकंड में नष्ट भी हो जाता है। उसके बाद एक एक्शन सीन , फिर वही पुरानी जानी पहचानी धुन।

उसके बाद शुरू होता है, विज्ञान, तकनीक, जांबाजी का शानदार मिश्रण। हर बार कुछ खास स्टंट किये जाते है, कभी दुनिया की सबसे ऊंची बिल्डिंग से कूदना, कभी पानी में 4 मिनट तक सांस रोकना । सुपर बाइक से रोड पर ट्रैफिक की विपरीत दिशा में दौड़ लगाना तो खैर होता ही है। इस बार एक हेलीकॉप्टर का स्टंट सबसे रोमांचक लगा। कहानी तो खैर अलग, उम्दा होती है। दुनिया खत्म होने से, पहले इथान हंट अपनी टीम के साथ खतरे को टाल देते है।मिशन इम्पॉसिबल : फॉलआउट , एक बढ़िया देखने लायक फ़िल्म है। तमाम नई अनोखे गैजेट से भरपूर , फ़िल्म आपको मन्त्र मुग्ध कर देगी।

आशीष, उन्नाव।

मंगलवार, 24 जुलाई 2018

Look your positive side

हर हाल में मुस्कराना है 


आखिरी अटेम्ट होने के कुछ अपने फायदे व नुकसान होते है। रह रह कर ख्याल आता कि अगर अबकी बार मिस किया तो पूरी उम्र आईएएस के लिए तड़पते रहोगे। इसलिए पूरी तरह से कमर कस ली और सकारात्मक चीजो पर नजर डाली। मैंने सोचा, अगर तुम पास हुए और अपने एटेम्पट दुनिया के सामने रखे तो लोग नजीर देंगे। यह सोच, मुझे हर पल मेहनत के लिए प्रेरित करती रही।


आशीष, सिविल सेवा 17 में चयनित

#मोटिवेशनल



Purandar Fort (03), Pune

पुरन्दर का किला नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा (03 )

आशीष कुमार 

अंततः किले के दरवाजे तक पहुंच गए। अब उसमें कोई लकड़ी का दरवाजा नहीं है। पूरी तरह से सन्नाटे से भरा, अजीब सीलन से भरी महक, गेट में लोहे के पुराने कुंडे में दरवाजे के कुछ अवशेष और न जाने कितनी घटनाओं का साक्षी। इस दरवाजे तक पहुँचने में पूरी तरह से पसीने से कपड़े गीले हो चुके थे. अब  पुराने पत्थरो की सीढियाँ बनी थी. एक भी सीढ़ी चढ़ी न जा पा रही थी पर अब हम पहुंचने ही वाले थे।  ऊपर जा कर देखा तो कुछ नहीं था। बस पहाड़ , कही कही पर कुछ पुराने दीवारे। यहाँ दूर तराई में गांव छोटे छोटे दिख रहे थे।  

यहाँ से नवनाथ जी कुछ बड़ी रोचक बातें बताई , जैसे पुराने दिनों में इन किलों में हाथी भी रहा करते थे जो बहुतों को आश्चर्य का विषय लगता। लोग सोचते कि इतने ऊपर हाथी कैसे चढ़ कर आते ? दरअसल हाथी के छोटे छोटे बच्चो को ही ऊपर चढ़ा दिया जाता था और वही बाद में बड़े हो जाते थे। किले के ऊपर भी साल/२ साल तक के लिए पानी , अनाज की भी व्यवस्था हुआ करती थी। पुराने दौर में जब सेना की मजबूती घोड़े , हाथी की सेना समझी जाती थी, ऐसे किले जीतना बहुत ही कठिन था। ऊपर तक चढ़कर आने में ही सेना थक जाती फिर वो किसी भी लड़ाई में नकाम रहती। बहुत बार , जैसे ही दुश्मन का पता लगता , ऊपर से बड़े बड़े पत्थर लुढ़का दिए जाते। यही कारण था कि मराठा लम्बे समय तक अजेय बने रहे। 
(ऊपर से तस्वीर तो नहीं ले पाया पर यह ज़ूम तस्वीर बता रही है कि काफी ऊंचाई चढ़नी है )


तमाम लोगों को यह लग सकता है कि यहाँ देखा क्या जाय ? ज्यादातर जगह पथरीली थी. अच्छा हुआ जो नवनाथ जी साथ थे। उन्होंने मुझे ऊपर पानी को इकठ्ठा करने वाली जगह दिखाई। सामने एक जगह पीने का पानी था जो वर्षा से अपने आप इक्क्ठा हो जाता था। दूर पहाड़ी पर एक मंदिर दिख रहा था जो किले का हिस्सा था। वो दिखने में ही बहुत दूर लग रहा था। हिम्मत जरा भी न था कि अब वहाँ क्या जाया जाय। नवनाथ जी जोर दिया और मैंने भी सोचा कि अब यहां तक आ गए तो वहाँ तक भी चला जाय। 

(समझ सकते है कि हम कितने ऊपर चढ़ कर गए थे )

किले का ऊपरी भाग काफी हद तक समतल है। रास्तें में एक परिवार सुस्ता रहा था। हम आगे बढ़े और रास्ते में पानी को इक्क्ठा करने के कई स्थान मिले। मोबाइल बहुत याद आ रहा था कि काश ये सब जगहें , तस्वीरों में कैद कर ली जाये। नवनाथ जी तमाम बातें बताते चल रहे थे , जैसे कि आस पास के युवा कभी कभी किसी खास मौके पर आकर इन पानी की जगहों को साफ कर जाते है। ज्यादतर जगहों पर लगभग 10 लाख लीटर तक पानी जमा हो सकता था। 

मंदिर की सीढ़िया अब पास लगने लगी थी। ऊपर दो आदमी और कुछ बंदर नजर आ रहे थे। पास जाने पर पता चला कि वो दोनों सेना के जवान थे। उनकी ड्यूटी खत्म हो रही थी , अब बाद में कोई दो और जवान आएंगे। इतनी ऊंची जगह पर चढ़ना और ड्यूटी करना , सच में टफ टास्क था। यह शिव जी का प्राचीन मंदिर था। अंदर बहुत सकूँन महसूस हुआ। यहाँ पर हवा बहुत स्फूर्तिदायक थी। सारी थकान दूर हो गयी। और भी तमाम रोचक बातें है पर उन बातों को रहने देते हैं।  काफी लम्बी सीरीज हो गयी है , आप भी पढ़ते पढ़ते तक गए होंगे। बस उपसंहार पढ़ लीजिये अच्छा है। 

लौटे समय इतना थका हुआ था कि डैम देखने का प्लान कैंसिल कर दिया। भोर से पुणे की बस ली। रात 8 बजे पुणे एयरपोर्ट पर था। सबसे ज्यादा कमर और तलुवे दर्द कर रहे थे। नाइके के हलके वाले शूज होने के चलते चढ़ाई में आराम तो मिला पर पत्थरों की चुभन बहुत दर्द दे रही थी। फ्लाइट 11 बजे थी। एक जगह पर मसाज चेयर दिखी। उनके विज्ञापन पर नजर गयी। "रिलैक्स एंड गो" का दावा था कि उनकी मसाज चेयर में 5 मिनट , एक एक्सपर्ट मसाज देने वाले के 30 मिनट के बराबर है। मैंने 20 मिनट वाला , जोकि सबसे बड़ा और फुल पैकेज था , लिया और आँख बंद कर लेट गया। एक एक्सपर्ट मसाज करने वाले के दो घंटे के बराबर मसाज कराने के बाद और एक आम व्यक्ति के पुरे दिन की कमाई के बराबर रुपए देने के बाद जब उठा तो कम से कम कमर और तलुवे की हालत काफी ठीक हो चुकी थी।

पास में चाय वाले से चाय पूछी।
"80 रूपये "
"मिल्क है "
"नहीं मिल्क पावडर है "
"क्या यार इतनी मॅहगी चाय और दूध भी नहीं "
"मिल्क पावडर 600 रूपये किलो वाला है "

इसीलिए एयरपोर्ट पर कुछ लेने से , सिनेमाघर में पॉपकॉर्न खाने से बचता हूँ , उस दिन मन मार कर 600 रूपये किलो वाले मिल्कपॉवडर की चाय पी। पुणे में आखिरी अंतिम घंटे  थे. यहाँ  जीवन में तमाम नए अनुभव मिले थे।  भारत में दक्षिण की ओर इतनी दूर तक पहली बार आया था। बहुत  सारे रोमांचक, सुखद अनुभवों  के साथ यात्रा समाप्त हुयी। 

( समाप्त )

© आशीष कुमार,उन्नाव उत्तर प्रदेश।   

सोमवार, 23 जुलाई 2018

Purandar Fort (02), Pune

पुरन्दर का किला नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा (02 )

आशीष कुमार 

बाला जी के मंदिर के मंदिर से निकले तो पास के पहाड़ी पर काले काले बादल घिर आये थे, मन में थोड़ी चिंता भी बढ़ी। नवनाथ जी बता चुके थे कि इधर बारिश आती है तो कई कई दिन तक लगातार होती रहती है। मुझे भोर (पुणे का एक तालुका ) में दो दिन हो चुके थे अभी तक तो सब ठीक था। जब गया उसके पहले तक बारिश हुयी थी। खैर बारिश होगी तब देखा जायेगायह सोच कर आगे बढ़ गए। 

रास्ता काफी उतार -चढ़ाव , घुमावदार था। मदिंर से थोड़ा आगे बढ़ने पर ही ऊपर पहाड़ी पर किले की काला ढांचा दिखने लगा था। बहुत दुँधला था। इससे पहले मैंने इलहाबाद का किला (अकबर) , दिल्ली का लाल किला (शाहजहाँ ), रानी लक्ष्मीबाई का किला ( झांसी ), विजय विलास पैलेस ( कच्छ गुजरात , यहाँ पर हम दिल दे चुके सनम की शूटिंग हुयी थी ) , सिटी पैलेस ( उदयपुर) , आगरा का लाल किला देख चूका था। इन सबमें लक्ष्मीबाई का किला /महल सबसे दुर्गम और रोमांचक लगा था। सिटी पैलेस काफी भव्य है और टिकट सबसे ज्यादा महँगी  है।

पुरन्दर की संधि (1665 ) के बारे में आप सब ने पढ़ा ही होगा। यह वही जगह थी। मन में बहुत रोमांच था कि उन्हीं जगहों में घूम रहा हूँ जहाँ लगभग 350 वर्ष पहले शिवा जी के नेत्तृत्व में मराठों ने मुगलों को दर्जनों बार कड़ी चुनौती थी।  इतिहास में मुझे मराठों का समय सबसे रोमांचककारी लगता है। बचपन में एक कहानी पढ़ी थी " गढ़ आया पर सिंह गया " शायद यह ताना जी की कहानी थी , जिसमें वो रस्सी की मदद से किसी किले को जीत लेते है पर अपनी शहादत की कीमत पर। शिवा जी के बचपन की तमाम कहानी भी पढ़ी है। बड़ी ही कम उम्र में उन्होंने तमाम किले जीत लिए थे।  अब जब अपनी आँखों से ऐसे किले देखने जा रहा था तो महसूस हुआ कि इन किलों को जीतना सच में बहुत ही कठिन था। कठिन क्यों था यह आगे बताऊंगा अभी अपनी यात्रा आगे बढ़ाये।  




यहाँ प्रवेशद्वार से आप किले की धुंधली तस्वीर देख सकते है
(यहाँ प्रवेशद्वार से आप किले की धुंधली तस्वीर देख सकते है )



रास्ता काफी सकून भरा था , भीड़ न थी। चारो तरफ हरियाली थी। खेतों में एक्का दुक्का लोग काम करते नजर आ रहे थे। किला दिखा गया था पर काफी ऊंचाई पर था। पहाड़ी जगहों में दुरी का अनुमान लगाना कठिन है पर कम से कम ४ किलोमीटर के घुमावदार रास्ते में पहाड़ पर चढ़ने के बाद , मिल्ट्री का चेक पॉइंट मिला। आज  ज्यादातर किले सेना के अधीन हैं। नवनाथ ने बताया कि पहले यह किले के दूसरे भाग में थे अब यहां तक इन्होने अपनी मौजूदगी बना ली है। पहले नीचे से ऊपर आने के लिए कोई रोड न थी। लोग ऊपर आने में भी आधा दिन लगा देते थे। 





(ऊपर सेना के पॉइंट से आगे बढ़ने के बाद )



सेना ने बाहर ही बाइक रुका दी और हम पैदल ही आगे बढ़े। ऊपर करीब 500 मीटर दूर किले की दीवारे अब स्पष्ट होने लगी थी। आगे एक और सेना का पॉइंट मिला। यहाँ हम से हमारे हथियार ( मोबाइल ) के लिए गए। बड़ा कष्ट हुआ कि अब आगे कैसे तस्वीरें निकाली जाएँगी। खैर अब अपनी चढ़ाई शुरू हुयी। एकदम खड़ी चढ़ाई , कोई सीढ़ी नहीं , बस पथरीला रास्ता। जोश था , खूब तेजी से चढ़े और थोड़ी ही देर में पस्त हो गए। बाहर से कही कोई गेट नजर नहीं आ रहा था.जंगली पेड़ , पौधों के बीच में हम गुजर रहे थे। बमुश्किल  5  फिट चौड़ा ही  रास्ता होगा। रास्ते में एक जगह एक दादा अपने पोते से के साथ मिले , वह वापस लौट रहे थे और उस जगह रुक का सुस्ता रहे थे। उस जगह पर बिलकुल खड़ी चढ़ाई पर एक शार्ट कट रास्ता था. 20 फिट की खड़ी चढ़ाई चढ़ो या फिर 50 मीटर घूम कर आओ। हमारे मेजबान ने कहा- सर चढ़ना मुश्किल और जोखिम भरा है और थक भी जाओगे। मैंने कहा मै जरूर चढूँगा। महानगरों में इस तरह की  दीवालों चढ़ने के लिए 100/200  रुपए ले लेते है और रस्सी का सहारा भी होता है। नवनाथ इकहरे शरीर के है और उनके लिए यह बहुत आम बात थी। पलक छपकते ही बगैर कोई सहारा लिए , ऊपर चढ़ गए। मैं भी चढ़ा , धीरे से बैठ कर। दोनों ही लोग जूते पहने थे। मुझे जूतों के फिसलने का डर था।


(ज़ूम करने बाद , समझ सकते है कि यह काफी उचाई पर है )


ऊपर नवनाथ बोल रहे थे  कि सर नीचे मत देखना। मेरा जरा भी पैर फिसलता तो काफी नीचे गिरता , मौत तो नहीं पता पर उठने लायक न बचता , इतना निश्चित था। बिलकुल चिपक कर , पत्थर पकड़ कर ऊपर चढ़ा और धीरे धीरे ऊपर पहुँच गया। सांस बहुत जोर से चल रही थी , ऐसा लगा कि 1 किलोमीटर की दौड़ लगा ली हो। खड़ा हुआ और आगे बढ़ा वजह आज रात में ही पुणे से फ्लाइट थी और मुझे कम समय में ज्यादा घूमना था। अगर सुस्ताने लगता तो पूरा किला देखा पाना मुश्किल था। थकान होने के बावजूद बहुत मजा आ रहा था। मैं अपने दोस्तों को मिस कर रहा था , सोच रहा था वो होते और मजा आता। 

जारी>>>>> 

© आशीष कुमार , उन्नाव। 

गुरुवार, 19 जुलाई 2018

Purandar Fort, Pune


पुरन्दर का किला नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा (01 )

आशीष कुमार 

सिविल सेवा में जब आखिरी एटेम्पट देना होता है तो बहुत सी चीजे मन में चलती रहती है , खास तौर पर जब आप लगातार मैन्स और इंटरव्यू के चक्र से गुजर चुके हो। मेरे मन में भी तमाम चीजे चला करती थी। उन सबके बीच एक ख्याल रह रहकर  जरूर आता कि एक बार सारे चरण पुरे हो जाये तो मुक्ति मिले और मैं खूब दूर घूमने निकल जाऊ। सिलेक्शन हो या न हो , बस अब घूमना है। मन में विचार आता था कि मैं ग्रामीण पर्यटन में रुझान के चलते राजस्थान के किसी गाँव में घूम रहा हूँ। मैंने पुरानी पोस्ट में , एक बात पर जोर दिया है कि मुझे अक्सर भविष्य की चीजों का आभास हो जाता है। मन में राजस्थान घूम रहा था पर यह महाराष्ट्र के गाँव थे जहाँ मैं वास्तव में गया था।  

पिछले महीने , पुणे से एक यूनिवर्सिटी से सिविल सेवा में सफलता के चलते बुलावा आया तो लगे हाथ वहाँ घूमने का प्लान बना लिया। मेरी फेसबुक की मित्रता सूची बड़ी लम्बी और विस्तृत है। मैंने फेसबुक में लिखा कि पुणे आ रहा हूँ और कोई मिलना चाहता है ? इस तरह मुलाकात हुयी नवनाथ गिरे जी से। उनसे कभी कोई बात न हुयी थी , न कोई परिचय था।  सच कहूँ तो मुझे याद भी नहीं कि उनसे कब दोस्ती हुयी थी. इसके बावजूद क्या खूब आतिथ्य किया। घूमते तो बहुत से लोग है , पर  यायावरी करना सबके बस की बात नहीं होती। लोकल व्यक्ति के होने से बड़े फायदे होते है , खास तौर पर अगर आपको वहाँ की भाषा , संस्कृति , इतिहास , भूगोल के बारे में अच्छे से जानना हो। नवनाथ जी ने विशेष रूप से मेरे लिए दो दिन की छुट्टी ली और मुझे जगह जगह घुमाते रहे।    

पुणे में बड़े बस अड्डे का नाम स्वारगेट (जब तक वहाँ नहीं पहुँचा तब तक बहुत परेशान था कि स्वारगेट आखिर क्या चीज है ?) है।  वहाँ नवनाथ जी के साथ भोर के लिए नॉन स्टॉप बस ली। उन्होंने कहा कि- सर कार भी है पर मैंने बाइक को ही वरीयता दी।  झूठ मूठ को काहे ख़र्च बढ़े और दो लोगो के लिए बाइक भी अच्छा साधन है।  पहले दिन महाबळेश्वर गए जिसका विवरण किसी अन्य पोस्ट में करूंगा आज दूसरे दिन की यात्रा विवरण लिखने का मन है। 

पहाड़ी जगह पर बाइक से 100 /150  किलोमीटर चलना और घूमना काफी थकानदायक होता है , इसलिए महाबळेश्वर से लौटने पर काफी थकान थी। रात में बड़ी अच्छी नींद आयी। अगर आपको  रोटी का स्वाद वाली पोस्ट याद हो , तो यह वही रात थी। अगले दिन , नवनाथ गिरे जी कहा कि आज पुरन्दर का किला देखने चलना है , रास्ते में एक डैम , कुछ नए मंदिर , कुछ ऐतिहासिक मंदिर भी देखना था। सुबह जल्दी निकल लिए पहले भोर में एक ऐतिहसिक जगह देखी। नाम याद नहीं आ रहा। कोई हवेली थी। जब पहुँचा तो वहाँ कोई शूटिंग खत्म हुयी थी। हवेली अक्सर बाहरी लोगों के लिए बंद रहती है , मैं सौभाग्यशाली था जो अंदर तक देखने का अवसर पाया। लकड़ी का काम बहुत सुन्दर है। शूटिंग वाले अपना पैकअप करके जा चुके थे और अपने पीछे बहुत गंदगी छोड़ गए थे।  चौकीदार , भून- भुना रहा था। मैंने उसे सहानुभूति के दो शब्द उससे कहे और निकल आया। बाहर एक गेट बना था जिस पर राजा रघुनाथ राव लिखा था अंदर तहसीलदार का भी ऑफिस था जो हवेली वालों ने दान दे दिया है।
#हवेली

रास्ते में बालाजी का काफी बड़ा मंदिर था। चुकि मै थका था , इसलिए किला देखने का ही ज्यादा मन था। नवनाथ जी कहा अभी जल्दी है इसलिए मंदिर भी चला गया। सुबह के  ९  बजे थे। मंदिर में भीड़ जरा भी नहीं थी पर वहां की व्यवस्था देखा , लग रहा था यहाँ हजारों आदमी आते है। मंदिर में निःशुल्क भोजन की व्यस्था थी। टिंडे (कुछ और भी हो सकता है , ठीक से समझ नहीं पाया ) की रसेदार सब्जी , चावल और साउथ की चटनी। खाना बड़ा ही साफ सुथरा,स्वादिष्ट , सुपाच्य था। दिल खुश हो गया। उनकी कैंटीन बहुत ही व्यस्थित थी।  

#बाला जी का मंदिर 


जारी>>>>> 

© आशीष कुमार , उन्नाव।  

शनिवार, 14 जुलाई 2018

Motivation Mantra


वो पूछते हैं कि कितने घंटे पढ़ना चाहिए ? मैं पूछता हूँ कि ग्रहण कितना कर पाते हो , इस पर निर्भर करता है। कितनी देर एकाग्र रह पाते हो, यह कही ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। आज किताबें हर किसी के पास है, हर कोई पढ़ भी रहा है पर सारतत्व कम लोग ही ग्रहण करते हैं। मेरे पास अक्सर एक सवाल आता है कि मेरी पढाई नही हो रही है, बजह क्या है ? क्योंकि मैं मोबाइल की एडिक्ट हो गयी हूँ, बगैर उसके रह नही पाती। इन दिनों, सस्ता नेट, उत्साही u tubers ने सबको ऑनलाइन पढ़ाई की ओर बुलाते है। जल्द ही आप समझ जाते है कि यह सब बस भरम है। पढ़ाई तो केवल किताबों से ही होती है पर मोबाइल से दूर रहा नही जाता।

© आशीष, उन्नाव ।

सोमवार, 9 जुलाई 2018

How am i spending my time after selection in UPSC

कैसे समय गुजर रहा है सफलता के बाद ?

"कभी कभी जब करने के लिए कुछ खास न हो तो हम सबसे ज्यादा ऊबे हुए होते है "

उन दिनों जब मैं सिविल सेवा में असफल था, एक सवाल मन में बार बार आता था कि सफलता के बाद कैसा लगता होगा।2 महीने गुजर गए है दरअसल गुजरे नही है, सच कहूँ कि मैं ही जानता हूँ कि कैसे घिसट घिसट के काटे जा रहे है। 9 सालों से upsc में इस कदर घुस गया था कि बस वही दुनिया नजर आती थी। समय कम पड़ता था किसी के लिए भी। न कही जाना, न फ़ोन कॉल। किसी के लिए भी वक़्त नहीं था। कुछ बेहद अहम, कोमल रिश्ते, upsc की तैयारी में भेंट चढ़ गए। तमाम लोगों की नजर में मैं एक स्वार्थी इंसान था। मुझे अक्सर झूठ बोलना पड़ता था । यह शादी के मामले में होता था, कुछ मित्र बड़ी उम्मीद से कार्ड देते और मैं बोलता कि जरूर आऊँगा पर कभी न जा पाया। मेरा  pre, mains और इंटरव्यू का चक्र पूरे साल चलता रहता और जॉब तो थी ही, लेखन भी निरन्तर चलता रहता। खैर अब उन बातों को क्या याद करना, सांझेप में मैं दुनिया का सबसे व्यस्त इंसान था।

अब मैं कुछ भी नही करता। पूरा दिन बोरियत भरा गुजरता है। जॉब में भी इस समय लोड जरा कम है। सारा दिन मैं फोन पर तमाम दोस्तो से बातें करता हूँ। अमेज़ॉन प्राइम पर कुछ मूवी देखता हूँ। फेसबुक पर कुछ लोगों ने बात करने के लिए no दिए थे, मैं तमाम सालों से जो मुझे पता था, उसमें उन्हें गाइड करता आ रहा हूँ पर पता नही क्यों अब जरा भी मन नही होता कि कोई मुझसे upsc की तैयारी की बात करे। समझ नही आता कि बोरियत बढ़ती क्यों जा रही है। तमाम लोगों ने ऑफिस में सलाह दी छुटी ले लो अब इस टाइम को एन्जॉय करो। मैं जानता हूँ कि अगर छुटी ली तो करने के लिए कुछ भी न बचेगा। अभी आफिस जाता हूं, तो लगता है कि कुछ घंटे कट जाए जाएंगे। लौटते वक्त  शाम को पूल में 1 घंटे तक तैरता हूँ। काफी तरोताजा महसूस होता है , इसके बावजूद मन एक प्रकार से ढीला सा पड़ा है। रात में नावेल पढ़ता हूँ, प्रायः सुरेंद्र मोहन पाठक के , कभी कभी इंगलिश अगस्त्य जैसा स्तरीय नावेल भी। 

बड़ा अजीब है कि नावेल खत्म नही कर पा रहा हूँ कोई भी। कुछ पन्ने पढ़ने के बाद छोड़ देता हूँ। घूमने भी काफी जगह जा रहा हूँ पर मजा नही आ रहा है। सफल मित्रों ने तमाम व्हाट ap पर ग्रुप बना दिये है -फाउंडेशन, हॉबी, सर्विस, स्टेट वाइज । सब एन्जॉय कर रहे है और इंतजार कर रहे है-? अब लिखने का भी मन नही होता, इसी साल मार्च में कुरुक्षेत्र हिंदी में एक बड़ा आर्टिकल लिखा था। एक बाल कहानी भी। उसके बाद कुछ अन्य महत्वपूर्ण जगहों से कहानी के लिए आफर आये पर उन संपादक को एक थैंक्यू लेटर भी न लिखा गया। हो क्या गया है , मुझे। शायद मैं इतने सालों के अनवरत थकान के लिए आराम के मोड में हूँ। पता नही कब तक यह आराम चलेगा पर यह अटल सत्य है कि मैं फिर एक रोज उठूँगा और कुछ नए मुकाम के लिए , नई योजनायों के साथ।

तमाम बातों के बीच एक सवाल जरूर आ जाता है कि कब आ रहा है सर्विस एलोकेशन ? ठीक वैसे जैसे - होली कब है , कब है होली ?


© आशीष कुमार, उन्नाव, उत्तर प्रदेश।

सोमवार, 2 जुलाई 2018

रोटी का स्वाद

रोटी का स्वाद

मेरे पुराने रूम मेट एक कहानी सुनाया करते थे । उनके भाई रेलवे में ठेकेदार थे। एक बार मित्र उनकी साइट पर मजदूरों के सुपरविजन के लिए रुके। आस पास होटल न थे। मित्र भूखे और बेचैन।  रात को मजदूरों ने ईटो का चूल्हा बनाया और मोटी मोटी रोटी बनायी। मित्र अक्सर जिक्र किया करते थे कि उस रात नमक व प्याज के साथ वो मोटी गर्म रोटी उनकी जिंदगी का सबसे स्वादिष्ट भोजन था।

एक और साथी इंद्रजीत राणा (उनका नाम लिख दूँ क्योंकि अक्सर कहा करते है कि उन पर भी कभी कहानी लिख दिया करू ) जोकि  डिप्टी कमांडेंट है और इन दिनों रैपिड एक्शन फ़ोर्स में अपनी सेवा दे रहे है, भी कुछ ऐसी बातें किया करते थे। उन दिनों हम एक सरकारी होस्टल में थे। होस्टल बन रहा था। वहाँ पर शाम को मजदूर खुले में अपनी रोटी बनाते । इंद्रजीत अक्सर कहा करते - यार उनकी रोटी इतनी सोंधी होती है कि मन होता कि उनसे मांग के खा लूं। होस्टल में हमें जली भुनी ठंडी रोटी मिलती । इंद्रजीत अक्सर खाने को लेकर हंगामा करता था। (10 साल पहले की बात है जो अब उसे शायद ही याद हो )

अपनी बात करूं तो बचपन मे घर मे लकड़ी के चूल्हे में रोटी बनती थी और काफी सालों तक मोटी, हाथ से पानी लगाकर बनाई जाने वाली रोटी खाने को मिलती रही। कई सालों से अब गांव में गैस में ही रोटी बनती है। अहमदाबाद आने के बाद यहाँ हयात जैसे 5 स्टार होटल में लंच भी किया पर वो स्वाद  न मिला। इसलिये कल रात जब ऐसी चूल्हे वाली रोटी और सब्जी खाने को मिली तो तबियत खुश हो गयी। दिन भर महाबलेश्वर घूमते रहे थे , इसलिए भूख भी खुल कर लगी थी। अपार तृप्ति का आंनद मिला। अपने कब खायी थी ये गर्म, मोटी, सोंधी व मीठी रोटी कब खाई थी ?

@ आशीष , उन्नाव

बुधवार, 20 जून 2018

International Yoga Day : A Story


अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस 


   'किशोरावस्था बड़े संघर्षतनावतूफान तथा विरोध की अवस्था है।स्टेनले हॉल

अगर आपको उन्नाव से सीधे अहमदाबाद आना हो तो एक ही ट्रेन है - साबरमती। सबसे पहले उसी ट्रेन से अहमदाबाद आया था। शुरू के १ साल तक उसी से आना और जाना। उस ट्रेन का रास्ता बहुत घुमावदार है। ऐसे अहमदाबाद से उन्नाव की दुरी 1200 km है पर साबरमती आपको 1700 km का सफर करा कर लाएगी। बाद में मुझे अन्य विकल्प मिल गए - एक जयपुर -आगरा हो के दूसरा वाया  दिल्ली। पिछले २ साल से तो इंडिगो की डायरेक्ट फ्लाइट का साथ रहा। यानि अब 90 मिनट में अहमदाबाद से लखनऊ पहुंचा जा सकता है। बात उन दिनों की है जब मैं साबरमती ट्रेन से सफर करता था यानि आज से 6 साल पहले।  

मेरी ट्रेन वडोदरा में काफी देर तक रूकती है। वही से वो चढ़ा था। वो रात का वक़्त था इसलिए उसे ज्यादा नोटिस न किया। सुबह उसने अपनी छाप सहयात्रियों पर छोड़ी। वो 16 या 17 का गोल मटोल लड़का था। जोर जोर से अपनी बातें बता रहा था। उसी दौरान उसने वो बात कही थी जो मेरे  मन में आज तक घूमती रहती है। वो मेरी तरफ नीचे वाली सीट पर बैठा था। सामने एक अंकल और आंटी थी। उस तरफ ऊपर सीट पर कोई लड़की थी जो सुबह के 10 बजे तक सोती रही थी. अपने आप को थोड़ा अलग मानने के चलते वो ज्यादा घुलना मिलना नहीं चाहती थी। इधर अपने गोलू ने तरह तरह की बातें सुनानी जारी रखी। तमाम बातें। अब ऊपर वाली लड़की से रहा न गया वो भी नीचे आकर बातों में शामिल हो गयी। 

वो क्रेद्रिय विद्यालय में टीचर थी। मथुरा के आस -पास की रहने वाली थी और यहां वड़ोदरा के पास कहीं जॉब कर रही थी। सारे लोग अपने अपने अनुभव बता रहे थे , दरअसल हम सब अपने सफर की बोरियत को कम करने के कोशिश कर रहे थे। अचानक गोलू ने योग के बारे में बात शुरू की और बोला वह नियमित योग करता है और तभी वो इतना फिट है। मैंने उसके शरीर के ओर देखा और मुस्कराया। उसने कहा - आपको यकीन नहीं आ रहा है पर सच यही है। योग से मुझे बहुत खुशी मिलती है। तुम समझ नहीं सकते इसमें कितना मजा मिलता है। सच कह रहा हूँ इसमें सेक्स से ज्यादा मजा आता है। अब सबके कान खड़े हो गए। मैंने गोलू से कहा चुप हो जाओ सब ने मान लिया है कि तुम योग करते हो। 

सब श्रोता धीरे धीरे अपने आप में बिजी होने का दिखावा करने लगे। गोलू ने मेरी तरफ झुक कर कान में कहा - भइया सही कह रहा हूँ योग सेक्स से ज्यादा मजा देता है।  "तुमने किया है क्या " मैं फुसफुसाया। उसने कहा -नहीं बस मुझे लगता है। योग में चरम आनंद मिलता है। मैंने कहा- जब तक तुम दोनों चीजे नहीं करते कैसे दावा कर सकते हो कि योग में ज्यादा मजा मिलता है। वो विचार में पड़ गया। उसने मुझसे पूछा- आप अपना अनुभव बताओ। आपको क्या लगता है कौन ज्यादा मजा देता है। मैंने कहा मुझे दरअसल योग का अनुभव नहीं है। उसने कहा - मतलब ? मतलब आप सोच लेना अब मुझे सोना है। मैं मुस्कराता हुआ उसे चिंतित छोड़ कर ऊपर की सीट पर लेटने चला गया। 

©  आशीष कुमार, उन्नाव उत्तर प्रदेश।   














शनिवार, 16 जून 2018

Scoop : A kuldip Nayar Book


Scoop : कुलदीप नैयर की एक पुस्तक

प्रकाशक  हार्पर कॉलिंस (2006 )  

मैं सत्य व्यास की बनारस टाकीज और निखिल सचान की नमक स्वादनुसार किताबें कमिश्नर सर से वापस लेकर निकल रहा था कि कपिल जैन मिल गए और कहने लगे कौन सी किताब दे रहे हो पढ़ने के लिए। मेरे मुँह से निकला - किताब के बदले किताब चाहिए। वो बोले बड़ी खुशी से। तो इस तरह Scoop और ओरिजिनल सिन किताबें मिली। कपिल की खास हिदायत थी कि स्कूप पढ़ कर वापस जरूर कर देना । इसलिए इसे जल्दी पूरा करने का दबाव भी था ।

214 पेज की किताब में विभाजन से आजतक (2000) की महत्वपूर्ण घटनाएं है। स्कूप का मतलब ही रोचक समाचार होता है। मुझे सबसे अच्छी बात इस किताब में यह लगी कि हर टॉपिक 3 या 4 पन्नों में खत्म कर दिया गया। 35 टॉपिक है पहला 30 जनवरी 1948 (गाँधी जी की हत्या ) और आखिरी टॉपिक  लाहौर बस यात्रा ( 20 फरवरी 1999 ) है। मुझे सबसे रोचक शास्त्री जी मौत से जुड़ा टॉपिक लगा। इस बारे में लंबे समय से मैटर तलाश रहा था। आपातकाल भी अच्छा लगा। इससे पहले मैंने रामचंद्र गुहा की दोनों किताबें  इंडिया आफ्टर गांधी और इंडिया आफ्टर नेहरू पढ़ी थी। गुहा की किताबों में विस्तार अधिक है तो स्कूप में संक्षिप्त और सारगर्भित लेख है।
ज्यादातर घटनाओं में नायर खुद मौजूद रहे है चाहे गांधी की हत्या हो या फिर लौहार बस यात्रा में अटल बिहारी जी के वो साथ रहे। इसलिए स्कूप बहुत सजीव व रोचक बन पड़ी है। गुहा की किताबें शोध पर आधारित है और वो इतिहासकार है इसलिए उनकी लेखन शैली अलग है। अगर कम समय में आपको आजादी के बाद की तमाम कहानी जाननी हो तो इसे जरूर पढियेगा।

- आशीष कुमार 
उन्नाव, उत्तर प्रदेश।

(  16 जून 2018 , अहमदाबाद)

गुरुवार, 14 जून 2018

Gajiyabad : Raj Nagar


मुझे जाना पड़ेगा 

आशीष कुमार 


कहते है शब्द जुबान से और तीर कमान से निकल जाने के बाद वापस नहीं लिए जा सकते है। उस रोज मुझे अपने शब्दों पर बड़ा खेद हुआ , झेप हुयी।  

इसी अप्रैल की बात है। एक मित्र रामकृष्ण है जो इंटरव्यू की तैयारी के दौरान सम्पर्क में आये थे। राजनगर , गाजियाबाद में रहते है। मै दिल्ली में था। मित्र से मुलाकात करने के लिए दिल्ली से गाजियाबाद निकला। पहली बार जा रहा था , खोजते पूछते उनके पते पर पहुंच ही गया। वो बीएसएनएल में काम करते थे और बोला था कि राजनगर में बीएसएनएल का टावर देखते हुए आ जाना। उस टावर के पास मुझे बीकानेरी स्वीट की एक दुकान दिखी। मन हुआ चलो देखे कुछ खाने का कोई बढ़िया आइटम मिल जाये। उत्तर भारत में खास कर अगर दिल्ली में होता हूँ तो तमाम चीजे खाने की कोशिस करता हूँ जो अहमदाबाद , गुजरात में नहीं मिलती। मिलती भी तो उनका टेस्ट अलग होता है।  

बीकानेरी स्वीट की दुकान , कार्नर पर ही है। अंदर जाकर देखा तो दिल खुश हो गया। एक तो बाहर की उमस , गर्मी से मुक्ति मिली और सैकड़ो आइटम थे। मिठाई के साथ नमकीन के भी व्यंजन। लगा कि मित्र  घर बाद में जायेगा कुछ वक़्त यही गुजारा जाये। इधर उधर काउंटर में तमाम चीजे देखी। दही बड़े खाने का प्लान बनाया। पता चला कि पहले बिल काउंटर पर पेमेंट करने के बाद ही खाने को मिलेगा। बिल काउंटर पर सेल्सबॉय  और सेल्स गर्ल थी। मैंने बिल कटाया और उससे पूछा कि वाशरूम कहाँ है ? मुझे बहुत जोर से आयी थी। उसने कहा - दूसरे फ्लोर पर। मेरे मुँह से निकला - वहाँ ही जाना पड़ेगा क्या ? एक पल को वो भी हैरान हो गया कि मैं क्या बोल रहा हूँ। तब तक मैं समझ गया कि ये बड़ी फनी स्थति हो गयी है।

 मन में तुरंत बात बनाने की कोशिस  कि नासा  वालो ने कुछ गोलियाँ बना ली है जिसे खाकर न भूख प्यास लगती है और न वाशरूम जाने की जहमत उठानी पड़ती है पर लगा कि शब्द जुबान से निकल गए है उनको सुधारा नहीं का सकता है। सेल्सबॉय मुस्कराते हुए कह रहा था कि सर अभी कोई ऐसा अविष्कार नहीं हुआ है कि आप इस काम के लिए किसी दूसरे को नियुक्त कर दे। मैंने एक नजर उठा कर देखा सेल्स गर्ल भी मुस्करा रही थी। मैंने जल्दी से बिल लेकर दही बड़े खाये और दूसरे फ्लोर जाने की जहमत न उठायी। दोस्त का  बताया टावर पास में ही दिख रहा था। अगले 10 मिनट में , दोस्त के गेट पर खड़ा था। दोस्त ने गेट खोला और पूछा कैसे हो ? मैंने कहा - भाई वाशरूम किधर है ? 


© आशीष कुमार 
( १४ जून २०१८  अहमदाबाद)

मंगलवार, 12 जून 2018

An evening in Mt. Abu

असली है क्या ?
आशीष कुमार 

कभी कभी हमारे जीवन में कुछ ऐसी बाते होती है जो होती बहुत सामान्य है पर आप उनको हमेशा सोचते रहते हो। वो चीजे मन मस्तिष्क से गुजरते ही मुस्कराने पर बाध्य कर देती है। उस छोटी सी घटना के 3 साल पुरे होने वाले है पर  मैं अब भी उस शाम की वो बात अक्सर याद करता रहता हूँ और सोचता हूँ आखिर उसने ऐसा क्यूँ कहा था ? उसके मन में क्या चल रहा था ? 

माउंट आबू में दो सन सेट पॉइंट है ( ज्यादा भी हो सकते है पर मैंने दो ही देखे ) . नक्की झील के आगे जो रोड जाती है उधर वाला ज्यादा फेमस और भीड़ भाड़ वाला होता है। उस शाम को मैं सन सेट पॉइंट पर ठीक 10 मिनट पहले ही पहुँचा था। खूब भीड़ थी। आगे लोग जगह घेर कर खड़े थे पीछे लोग सट कर बैठने लगे थे। ठीक बगल में 10 फिट ऊंची जगह पर बंदरों की एक टोली भी बैठी थी। मैं बार बार यही सोच रहा था कि अगर ये ऊपर से नीचे कूद गए और भगदड़ मच गयी तो ? हिल स्टेशन में सन सेट पॉइंट में होना और सूर्य को ढलते देखने का अपना आनंद होता है। तमाम लोग इसी आनंद के लिए जुटे थे पर लोग तो लोग होते है। इस भीड़ में भी उन्हें अलग से पहचाना जा सकता है। 

आप कुछ भी कहे - क्यों होता है , कैसे होता है पर मैं वो चीजे देख लेता हूँ , सुन लेता हूँ जो अनोखी होती है। जिन पर लिखा जा सकता है। दूसरे शब्दों में यह कह सकते है कि मेरी नजर व कान ऐसी चीजें देख व सुन ही लेते है। उस भीड़ में तमाम अंग्रेज पर्यटक भी थे। मेरे ठीक नीचे एक अंग्रेज किशोरी बैठी थी। उसके पीछे , उसकी माँ थी। बगल में एक आंटी ( वय 40 वर्ष बहुत सम्भव राजस्थान/गुजरात से ) बैठी थी। दरअसल थे तो तमाम लोग और एक दूसरे से सटे हुए पर बात इन्हीं पात्रो की ही है। अंग्रेज किशोरी के बाल पुरे गोल्डन थे और कर्ली थे ( कर्ली थे या उसने खास डिज़ाइन करवा रखी थी कहना मुश्किल है, काफी लम्बे और बहुत ही करीने से पूरी पीठ पर फैले हुए ) उसके बाल निश्चित तौर पर किसी का भी ध्यान खींच सकते थे। सूर्यास्त होने कुछ मिनट ही बचे थे शोर गुल बढ़ने लगा था। तभी मुझे सुनाई पड़ा - असली है क्या ? 

मैंने देखा- मेरी बगल की आंटी , उस किशोरी के बाल अपने हाथ में लेकर पूछ रही थी। किशोरी ने घूम कर देखा और जब तक कुछ समझती आंटी ने फिर उससे पूछा -असली है क्या। किशोरी और उसकी माँ थोड़ा सा हैरान थी। उस एक मिनट की घटना , मुझे तमाम चीजे सोचने पर बाध्य कर गयी। सबसे पहली बात आंटी ने बगैर यह समझे कि यह हिंदी समझेगी नहीं पुरे विश्वास से  हिंदी में पूछ रही थी। दूसरी बात आखिर आंटी को कितनी चुलबुली हुयी कि सूर्यास्त देखने के बजाय गोल्डन बालों की खूबसूरती देख कर उनसे रहा न गया जो बगैर हिचके उस किशोरी के बाल हाथ में पकड़ ली थी। सूर्य आधा ढल चूका था। प्रकृति ने आकाश में अपनी अनोखी छटा बिखेर रखी थी। थोड़ा और नीचे एक देसी लड़का कोई सस्ता सा चश्मा लगाता / हटाता और उसी सुनहरे बालों वाली किशोरी का ध्यान अपनी और खींचने का प्रयास करते हुए सस्ती सी घटिया हरकत कर रहा था। उस देसी लड़के की विदेशी दिखने की  हरकते , किसी सज्जन को भी शर्मिंदा कर सकती थी। मुझे  अतिथि देवो भव के तमाम विज्ञापन / आमिर खान  बहुत याद आये।   


फुटनोट :- इधर हमारे समाज में लड़कियों में गोल्डन बालों की लट रंगवाने का खूब चलन बढ़ा है( अब यह मत पूछना मुझे सब कैसे पता मैंने पहले भी बताया और लिखा भी है कि मेरा वर्तमान ऑफिस बहुत हाई फाई जगह पर है जहाँ लड़कियाँ बगैर हिचके हर समय सिगरेट पीते दिख जाती है, फिर गोल्डन कलर वाली लट तो बहुत आम बात है ) क्या पता उस फैशन  शुरुआत उन्हीं आंटी से हुयी हो जो माउंट आबू से लौट कर अपने बाल सुनहरे करवा लिए हो। 


©आशीष कुमार 
उन्नाव , उत्तर प्रदेश।  

( 12 जून 2018, अहमदाबाद  )  

रविवार, 10 जून 2018

Be alert

आप सतर्क रहना

एक बात है जो मुझे काफी घुटन दे रही है। दरअसल पिछले दिनों एक कोचिंग से फोन आया, मेरे हिंदी साहित्य के नंबर पूछे और फ़ोन रख दिया। बताने की जरूरत नही कौन कोचिंग हो सकती है। यह सच है कि मैंने वहां  mains की टेस्ट सीरीज जॉइन की थी , पर मुझे लगता नही कि उनको मेरे नंबर का क्रेडिट लेना चाहिए और उसके नाम पर अन्य लोगों को अपनी टेस्ट सीरीज जॉइन करवाने का व्यापार करना चाहिए।
7 टेस्ट की सभी उत्तर में सिर्फ very good, और good के अलावा कोई रिमार्क नहीं । बहुत ज्यादा असंवेदनशील है वो। fee का कोई reciept भी न दी। मुझे बस देखना था कि क्या वो सर्विस टैक्स चार्ज कर रहे है और क्या वो उस पर टैक्स भी भर रहे है। बातें तमाम है क्या क्या कहूँ। हिंदी साहित्य में दूसरा विकल्प भी बहुत दुखी करने वाला है, वो कॉपी खुद चेक करते है पर मॉडल उत्तर नही उपलब्ध कराते । जहां मैंने जॉइन की थी वो किसी नए लड़के से ही कॉपी चेक कराते है और उसे fee भी शायद बहुत कम देते है।
ये अनुभव इसलिए हुए क्योंकि मैंने gs के लिए विज़न की टेस्ट सीरीज जॉइन की थी। fee reciept तुरंत मेल कर दी। कॉपी में खूब रिमार्क देते थे। पता चला कि वो एक कॉपी चेक करने के 800 रुपए देते है। स्टूडेंट से 1000 से 1200 per टेस्ट फी लेते है और बड़ा हिस्सा कॉपी चेक करने वाले को दे देते है।

हिंदी माध्यम में प्रचार प्रसार में पैसा फूक देंगे पर क्वालिटी के नाम पर कुछ न करेंगे। यही बड़ा कारण है कि हिंदी माध्यम की कोचिंग तो अमीर होती जा रही है पर रिजल्ट गिरता जा रहा है।

अपने हिंदी के अंकों का बड़ा श्रेय इग्नू के नोट्स, कुछ अच्छी किताबों के साथ गहरी रुचि, हिंदी लेखन की आदत को ही दूंगा। आप व्यापार करने वाली जगहों में फंस मत जाना। उनके असंवेदनशील व्यवहार को आप हमेशा कोसते रहोगे। मुझे इस बात की हमेशा खुशी रहती है कि मैंने कभी उनके भीड़ वाले class room प्रोग्राम का हिस्सा न था।

गुरुवार, 7 जून 2018

Some Important things

कुछ जरूरी बाते 

आशीष कुमार 


27 अप्रैल 2018  की शाम मेरे जीवन की सबसे महत्वपूर्ण शाम थी। उस दिन सिविल सेवा का रिजल्ट आया था। मेरा अंतिम प्रयास था। तमाम तनाव और मुश्किलों के बीच सफलता की खबर ने मुझे संजीवनी सी दे दी। पिछले 9 सालों से इसके भवँर में था। 

सोचा था कि एक पोस्ट लिखूंगा कि देश के सबसे मुश्किल एग्जाम को पास करने के बाद के 1 महीने कैसे गुजरते है। महीना तो गुजर गया , आलस के चलते कुछ भी न लिखा। दरअसल सच कहूँ तो दिन अब बहुत बोरिंग से गुजरते है। खूब मेहनत करने की आदत पड़ गयी थी। ऑफिस का काम बहुत तेज करके समय बचा लेना , काफी पहले सीख लिया था। बचे टाइम में पढ़ना , लिखना चलता रहता था। अब न तो पढ़ना है और लिखने का मन होते हुए भी गर्मी से आक्रांत हूँ इसलिए चुपचाप पड़ा रहता हूँ। a.c. की इतनी बुरी लत लग गयी है कि जरा भी गर्मी बर्दास्त नहीं होती।

रिजल्ट के बाद 1 महीना कैसे गुजरा यह तो कभी फुर्सत में में ही लिखूंगा ( न जाने वो फुर्सत कब आएगी ) पर कुछ बातें कर लेता हूँ। तमाम लोग , किताबें , तैयारी के लिए संपर्क करने का प्रयास किया और मैंने यथा संभव उनकी मदद भी की। पर दिल से कहूँ तो मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि सफल व्यक्ति से भी ज्यादा अच्छे और गहराई से एक संघर्षरत , असफल व्यक्ति ज्यादा दे सकता है और उससे ज्यादा सीखा जा सकता है। 

पर नहीं दुनिया सिर्फ चमक के पीछे ही भागती है। मैंने पिछले ४ सालों के दौरान तमाम बहुत अच्छी और बढ़िया पोस्ट लिखी। उसमें हर चीज है बूकलिस्ट , टिप्स , लिंक आदि। बहुत बार लोगों से कहता था कि मैन्स के आंसर लिखो , मै चेक कर दूंगा। अपवादों को छोड़ दे तो कोई खास रिस्पांस न मिला। अब जब मैं कुछ न करता , सारा दिन यूँ ही अपना टाइम काटता रहता हूँ तो तमाम लोग उम्मीद करते है कि मै उन्हें कोई बढ़िया टिप्स दे दूंगा। भाई जब सच तो यही है कि मेरी पुरानी पोस्ट ही बड़े काम की है। अब जो कुछ बताऊंगा या लिखूंगा वह जमीनी हकीकत से परे ही होगा अब न तो मुझे एग्जाम देना है और न ही मैं अपने आप को अपडेट रख रहा हूँ । दरअसल अब मन भी ज्यादा नहीं होता। 

काफी लोगों को मेसेज का रिप्लाई भी नहीं दे पाता। कई बार बड़ी कोफ़्त भी होती है जब कोई फेसबुक पर बूकलिस्ट /टिप्स मांगता है , उसकी टाइम लाइन पर जा कर देखो तो पता चलेगा कि देश की राजनीती /प्रेम मोहब्बत का सारा ज्ञान , उन्हीं महानुभाव के पास है। कहने का आशय यह है कि यार तुम शायरी /जाति /धर्म /समुदाय/राजनीति  से अभी नहीं उठ पाए हो तो तुम अभी नादान हो। कम के कम सफल व्यक्ति की टाइम लाइन पर जाकर देखो - क्या वो भी वही करते है क्या ? सिविल सेवा गंभीरता मांगती है। मेरी तमाम असफलताओं के पीछे सिर्फ सिर्फ  एक ही वजह थी - मेरा upsc के लेवल का गंभीर न होना।  



-आशीष कुमार 
( सिविल सेवा 2017 में हिंदी माध्यम से चयनित )

बुधवार, 30 मई 2018

Thanks to all my lovely teacher



नमन उन गुरुजनों को 

आशीष कुमार 


प्रायः हम कई वादे अपने आप  से करते है पर जरूरी होते हुए भी पूरे नही कर पाते है। तमाम टीचर डे गुजरे , मुझे अपने प्रिय अध्यापकों की याद भी खूब आयी पर दो शब्द न उनसे कहे , न लिखे। हर बार लगा जब फुरसत होगी तब मिलूंगा , लिखूंगा उन पर। आज उन पर दो शब्द। वैसे कबीर ने गुरु पर लिखा है कि सतगुरु की महिमा अनंत। उस अनंत महिमा में दो शब्द में  लिखने का लघु प्रयास - 

१. श्री उमाशंकर ( मास्टर जी , ईशापुर , चमियानी , उन्नाव ) - सर मेरे गांव के है। मेरे गांव में लगभग हर घर में सरकारी नौकरी है और उसके पीछे मास्टर जी मेहनत का ही योगदान मैं मानता हूँ।  उनके पास कक्षा -5 से कक्षा -8 तक घर पर  टूशन (३०/40 रूपये महीने )  पढ़ने जाता था। उन्होंने मेरी मैथ बहुत अच्छी तैयार करवाई थी। जो मुझे आगे बहुत काम आती रही। दरअसल अंकगणित ( नल व टंकी , रेल , मजदुर और दीवाल वाले सवाल आदि ) का बेस अगर मजबूत हो तो आप कभी पिछड़ नहीं सकते। तमाम चीजे वहाँ से सीखी। जीवन की पहली प्रतियोगी परीक्षा ( नवोदय विद्यालय ) की तैयारी उनसे ही सीखी। हर रविवार वो इसकी पढ़ाई कराते थे। नवोदय में सफल तो न हुआ पर बाद में एकीकृत परीक्षा ( जिसमें लखनऊ के स्कूल में एडमिशन मिलता है , पता नहीं अब यह परीक्षा होती भी या नहीं ) में सफल हुआ। उन्होंने मेरी अंग्रेजी , गणित , रीजनिंग, जी.के.  खूब मजबूत कर दी थी। जिसका लाभ मुझे हर जगह मिला। हर बार जब गांव जाना होता तब उनसे मिलता जरूर हूँ। इस बार मिठाई से साथ मिला और मुझे महसूस हुआ कि निश्चित ही मेरी सफलता , उन्हें भी गर्वित करती है। उन्हें ह्रदय से नमन। 


2. श्री रितेश सिंह ( गुड्डू भईया , मौरावां उन्नाव )- हाईस्कूल पास करने के बाद मैंने इंटर की पढ़ाई मौरावां के के. न. पी. न. इंटर कॉलेज से की। भइया नवोदय से पढ़े है और मौरावां में कोचिंग पढ़ाते है। एक बार कक्षा -8 के दौरान मै मौरावां गया था , भइया के पास कुछ लड़के टूशन पढ़ने आये थे , मैं भी बैठ गया। कुछ सवाल दिए गए lcm और mcm के। मुझे तो याद नहीं पर उस बैच में कुछ भावी सहपाठी(सुदीप मिश्रा ) बैठे थे, जो उस दिन की मेरी गणित में तेजी देख अत्यधिक प्रभावित हुए। इसके बाद तमाम बातें है जो पहले मैंने पोस्टों में जिक्र किया है। भइया ने मुझे जीवन के तमाम विषयों में रूचि पैदा की। वही पर चेस खेलना ( आगे मैंने यूनिवर्सिटी लेवल तक भी खेला) , बैडमिंटन खेलना सीखा। नावेल पढ़ने की लत वही लगी। वहां से मैंने कोर्स की किताबें कम , अन्य विषयों की किताबे ज्यादा पढ़ने लगा। नतीजा यह हुआ कि एकेडमिक में मैं पिछड़ता गया पर एक बौद्धिक व्यक्तित्व की नींव पड़ने लगी। उन दो सालों में मैंने खूब नावेल पढ़े ( मौरावां के पुस्तकालय में ). भैया के पास इंग्लिश की कोचिंग पढ़ता था और उनके सानिध्य के चलते 12 में सबसे ज्यादा अंग्रेजी में अंक पाए।  तमाम बातें के बीच सबसे  महत्वपूर्ण बात यह कि भैया ने मुझे दोनों साल में फ़ीस न ली ( 60 रूपये महीने ). सतगुरु की महिमा अनंत है इसलिए ज्यादा विस्तार में न जाते हुए , यही कहूंगा कि व्यक्तित्व निर्माण में भैया का रोल काफी अहम रहा है। इस बार सफल होने के बाद , उनसे भी मिला अच्छा लगा। पता चला उनकी कोचिंग में अब हर कोई आईएएस की तैयारी करने की सोचने लगा है। 

3. श्री सुशील पांडेय ( भागीदारी भवन , लखनऊ )- सर भागीदारी भवन में इतिहास पढ़ाने आते थे। उनकी क्लास बड़ी रोचक होती थी। तमाम लोग इस बात से असहमत हो सकते है कि क्लास में सिर्फ कोर्स पढ़ाना चाहिए या फिर कोर्स के अलावा चीजे बतानी चाहिए। सर , की यह बात अच्छी लगती थी कि वो आईएएस , pcs से जुडी तमाम बातें बताते रहते थे। बड़ा मोटिवेशन मिलता था। सर , क्लास में मेरे ऊपर बड़ा स्नेह रखते थे। अगर कोई नोट्स लाते तो मुझे ही देकर जाते थे।इस उम्र में भी मेरे कान खींच लेते पर मुझे बुरा न लगता था। सर एक अच्छे परिवार से आते थे.कई आईएएस , आईपीएस उनके खास सम्बन्धी है। सर का वो दौर संघर्ष भरा था। पिछले महीने सिविल सेवा में सफलता पाने के बाद उनसे बात हुयी  और उन्होंने सुचना दी कि उनका चयन एसो. प्रोफेसर के पद पर लखनऊ विश्विद्यालय में हो गया है ,बड़ी खुशी हुयी। इस बार उनके घऱ मिलने पहुंचा तो सर से मुलाकात न हो सकी पर एक वादे के साथ अगली बार उनके घर एक दिन बीतेगा और साथ में डिनर होगा , मैं वापस अहमदाबाद आ गया। 



मैंने अपने जीवन में छोटी बड़ी तमाम सफलताएं ( प्रतियोगिता परीक्षा , लेखन आदि ) पायी है।  सरकारी स्कूलों में ही पढ़ा। पढ़ाई के लिए उन्नाव से बाहर कही निकला नहीं। मन में इस बात की कही न कही कुंठा भी रही कि इलहाबाद , बनारस , जे एन यू आदि में पढ़ता तो कितना अच्छा होता पर ऊपर लिखे अध्यापकों  ने हर कमी पूरी की। मैंने दो जगह फ़ीस का जिक्र इसलिए किया है  ताकि पता चले कि कितने कम रूपये में कितनी अच्छी शिक्षा मिली है। तीनों लोगों ने मुझे पर विशेष स्नेह रखा , महत्व दिया। इनका मैं जीवन भर कृतज्ञ रहूंगा।

पाठकों के लिए  एक जरूरी बात, सच्चे गुरु बड़ी मुश्किल से मिलते है अगर वो मिल जाते है तो उन पर अपार श्रद्धा रखना, उनका आशीर्वाद बड़े काम की चीज होती है।


- आशीष कुमार 
उन्नाव , उत्तर प्रदेश 
( हाल में घोषित सिविल सेवा परीक्षा 2017 में हिंदी माध्यम से चयनित )







सोमवार, 28 मई 2018

What I read in last 15 days

हालांकि इसके अलावा भी काफी कुछ पढ़ा पर, यह नोट करने लायक था।

गुलजार की दो कहानी

1. धुंआ
2. तकसीम

रेणु

1. ठेस सिरचन की कहानी
2 . रसप्रिया -मृदरंगी पँचकौड़ी
3. लाल पान की बेगम- बिरजू की माँ, नाच देखने का पकरण

धर्मवीर भारती

1. बन्द गली का आखिरी मकान

अमरकांत

1 एक थी गौरा
2 दोपहर का भोजन
3 डिप्टी कलेक्टरी (सिविल सेवा की तैयारी करने वालो को जरूर पढ़ना चाहिए )
4 पोखरा
5. लड़का लडक़ी ( बहुत ही अच्छी)

अगस्टस स्ट्रिंग्बर्ग 
1. पुर्जा
2. धनिया की साड़ी

रमेश बक्षी

1 मुमताज महल का इयररिंग
2. जो सफल हैं

कई बार मैं जिक्र करता हूँ कि 500 से अधिक नावेल पढ़े होंगे और वो पुस्तकालय के रिकॉर्ड में होंगे भी पर मेरे पास अपनी पढ़ी पुस्तकों का लेखा जोखा नही है। यही सोच कर जो अब जो कहानी पढ़ता गया उसको नोट करता चला। नॉवेल या बड़ी बुक की संक्षिप्त समीक्षा लिखने का प्रयास करता रहता हूँ । उक्त कहानियां गद्य कोष पर ऑनलाइन उपलब्ध है और बहुत रोचक है। रेणु की कहानियाँ पर अलग से कुछ लिखने का विचार है। आंचलिक विषय वस्तु और भाषा मे वो बेजोड़ है।

©आशीष कुमार, उन्नाव, उत्तर प्रदेश।

Some more books



पिछले दिनों कुछ और किताबे पढ़ी गयी। दरअसल कई वर्षो बाद , अब फिर से वही पुरानी आदत यानि नावेल पढ़ना को समय दे पा रहा हूँ। 

१. दो मुर्दो के लिए गुलदस्ता - सुरेंद्र वर्मा का लिखा नावेल है। विषयवस्तु में दो नायक भोला और नील की कहानी है जो बॉम्बे में चलती है। दोनों दिल्ली छोड़ कर बॉम्बे जाते है और वहाँ की महानगरीय जिंदगी जीने के लिए बाध्य होते है , जिसमें धन है पर सकूँन नहीं है। नील पुरुष वेश्या बन जाता है और पारुल वाले प्रकरण के चलते उसकी हत्या कर दी जाती है। इससे पहले वर्मा का मुझे चाँद चाहिए नावेल पढ़ा था। वह स्तरीय था। उसमें वर्षा वशिष्ठ  की कहानी थी। मेरे कमिश्नर सर ने यह नावेल दिया था और हम दोनों का नावेल पढ़ने के बाद एक निष्कर्ष निकला था कि लेखन में कामुकता , नग्नता का पुट डालना शायद बाजार की मांग सी हो गयी है। कुछ पल को मुझे लगा कि मैं लुगदी साहित्य की परम्परागत कथा पढ़ रहा हूँ। भाषा जरूर स्तरीय है पर विषय वस्तु , हमेशा से दोहराई जाने वाली।  

२. मदारी - वेद प्रकाश शर्मा - इस सप्ताहांत मदारी को नेट से डाउनलोड करके पढ़ा। वेद प्रकाश को पहले खूब पढ़ा है। जीवन की तमाम दोपहर उनके नावेल पढ़ने में बीती है।  मदारी में राजदान नामक एक व्यक्ति अपनी मौत के बाद अपने बुने जाल में फसा कर, अपने कातिलों का जीना हराम कर देता है।

3. आखिरी शिकार - सुरेंद्र मोहन पाठक -  यह भी कल (रविवार ) नेट से डाउनलोड करके पढ़ा। सुनील सीरीज का नावेल है। घटनाक्रम लन्दन का है। रहस्य और रोमांच से भरपूर , पढ़ाकर मजा आ गया।  


-आशीष कुमार 
उन्नाव , उत्तर प्रदेश।  












शुक्रवार, 25 मई 2018

Muft ka yash


मुफ्त का यश 


प्रेमचंद्र की एक कहानी है " मुफ्त का यश ". सिविल सेवा के पाठ्यक्रम (हिंदी साहित्य) में भी है। कहानी के शीर्षक से विषयवस्तु का पता चल जाता है। पिछले दिनों मुझे भी कुछ ऐसा ही महसूस हुआ। 28 अप्रैल को dd गिरनार ने सिविल सेवा 2017 में सफल होने के बाद मेरा इंटरव्यू मेरे घर आ कर लिया , जिसमें उन्होंने मेरे पड़ोसियों से भी मेरे विषय में पूछा और बात की। 

मेरे सामने वाले फ्लैट में एक काकी रहती है , आयु 60 के आस पास होगी। दुबली पतली पर बहुत फुर्त। जब कभी मुझे मिलती तो एक सवाल जरूर पूछती - खाना बना रहे हो या होटल में खा रहे हो। कभी कभी कुछ और सवाल भी। उस रोज जब टीवी पर बोलने के लिए कहा गया तो दो पड़ोसी तैयार हो गए। एक पड़ोसी जो बैंक में काम करते है और पढ़े लिखे होने के बावजूद , टीवी पर बोलने के नाम से उनकी हिम्मत जवाब दे गयी. काफी जोर भी दिया तब भी वो नहीं -नहीं करते रहे।  

काकी से पूछा गया तो क्या शानदार गुजराती में मेरे बारे में बताया। 6 साल से अहमदाबाद में रहने के दौरान  मैं  ज्यादा गुजराती बोल तो नहीं पाता पर  समझ जरूर लेता हूँ। काकी कह रही थी कि  यह लड़का बगैर आलस किये रोज पढ़ता था। चाहे रात का कितना ही वक़्त क्यू न हो इसकी लाइट जलती रहती थी। सुबह उठो तब भी जलती रहती थी। उस समय  मैं उनसे कुछ कहना चाहता था पर चुप रहा। 

दरअसल एक दिन उन्होंने पूछा था कि ये लाइट क्यू जलती रहती है रात में पढ़ते रहते हो क्या ? मैं समय बचाने के लिए पड़ोसियों से ज्यादा बोलने व घुलने मिलने में यकीन न करता था इसलिए संक्षेप में जबाब दिया था - हाँ। जबकि वो मेरे ड्राइंग रूम की लाइट थी जो फ्लैट में अंधरे से बचने के लिए हमेशा मैं जला क़र रखता था। पढ़ाई तो ज्यादातर लाइब्रेरी या अपने बैडरूम में ही करता था। काकी की याददाश्त बहुत अच्छी थी और मेरे बारे तमाम चीजे अपनी समझ से बहुत अच्छे से बगैर हिचके बोलती रही। उस दिन मुझे भी प्रेमचंद्र की समानुभूति हुयी। मुफ्त का यश की विषय वस्तु भी कुछ ऐसी ही है। 

-आशीष कुमार 
उन्नाव , उत्तर प्रदेश।  









  

गुरुवार, 24 मई 2018

Some steps for employment generation

रोजगार बढ़ाने के क्या हो कारगर उपाय ?


भारत में पिछले कुछ दशक से रोजगार विहीन विकास के बारे सवाल उठते रहे है।  एक ओर हमारा देश विश्व के सबसे तेज गति से बढ़ने वाला देश माना जा रहा है।  हमने तमाम सूचकांकों में काफी अच्छी प्रगति की है। इसके बावजूद देश का युवा रोजगार के लिए सड़को पर उतर रहा है। हम अपने युवाओ को उनकी आशा के अनुरूप रोजगार नहीं दे पा रहे है। आज देश के तमाम इंजीनिरिंग कॉलेज से निकलने वाले ग्रेजुएट , गुणवत्ता पूर्ण जॉब के लिए तरस रहे है और अपनी आजीवका के लिए कम वेतन पर काम करने को मजबूर है। दूसरी ओर देश के लिए कुशल , दक्ष लोगों की भी कमी है। आखिर समस्या कहाँ और क्यों है ? 

दरअसल हमने अपने कॉलेज , स्कूलों में वर्षो से चले आ रहे पाठ्यक्रम को ही जारी रखा है जबकि उनमें आज की जरूरत के अनुरूप विषयो पर जोर दिया जाना चाहिए। आज बिग डाटा एनालिसिस , ऑटोमेशन , इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स जैसी चीजों की बात हो रही है और हम अपने युवाओं को 1990 के दशक के अनुरूप विषय पढ़ा रहे है। 1992 के बाद से हमारी शिक्षा नीति नहीं बदली गयी है। पूर्व कैबिनेट सचिव टी यस आर की अध्यक्षता में नई शिक्षा नीति के लिए हमने एक समिति का गठन जरूर किया पर उसकी सिफारिशों पर अब तक कोई कदम नहीं उठाये गए है। इस दिशा में हमें जल्दी से विचार कर जरूर कदम उठाने होंगे।  

रोजगार बढ़ाने के लिए भारत को सनराइज उद्योगों यथा खाद्य प्रसंस्करण , जैविक खेती , विनिर्माण आदि श्रम बहुल क्षेत्रो पर ध्यान देना होगा। जरूरत के अनुरूप स्किल का विकास करना होगा। भारत में आधारभूत ढांचे के लिए तमाम सड़क, पोर्ट , एयरपोर्ट , एक्सप्रेस वे , औधोगिक गलियारे आदि से जुडी योजनाओं में रोजगार के लिए असीम संभावनाएं है।  मेक इन इंडिया , स्किल इंडिया , भारत माला , सागरमाला , उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में डिफेन्स कॉरिडोर का विकास आदि कार्यक्रमों के जरिये सरकार इस दिशा में काफी महत्वपूर्ण कदम उठाये है। एक बात ध्यान में रखनी होगी कि रोजगार के हमेशा सरकार की ओर हमेशा मुँह ताकने के बजाय जहां तक संभव हो , खुद रोजगार पैदा करने वाले बने तो देश में रोजगार की समस्या का काफी हद तक निदान हो सकता है। इसीलिए सरकार मुद्रा योजना , स्टैंड अप इंडिया , स्टार्ट अप इंडिया जैसी योजनाओं के जरिये देश में निवेश व स्वरोजगार के लिए माहौल बनाया है। आशा की जा सकती है कि आने वाले समय में बेरोजगारी की समस्या काफी हद तक दूर हो सकेगी।  

आशीष कुमार 
उन्नाव , उत्तर प्रदेश।  
  

Featured Post

SUCCESS TIPS BY NISHANT JAIN IAS 2015 ( RANK 13 )

मुझे किसी भी  सफल व्यक्ति की सबसे महतवपूर्ण बात उसके STRUGGLE  में दिखती है . इस साल के हिंदी माध्यम के टॉपर निशांत जैन की कहानी बहुत प्रेर...