गुरुवार, 19 मार्च 2020

My introduction with libraries

दो शब्द पुस्तकालयों के संदर्भ में 

पुस्तकालय से पहला परिचय मौरावां में हुआ, मेरे इंग्लिश की कोचिंग वाले रितेश सर ( गुड्डू भैया ) ने मुझे वहाँ की सदस्यता दिलवा दी। शायद 50 रुपए सदस्यता शुल्क था। बात कक्षा 11 की थी। इसके पहले गांव में यहाँ वहां से इधर उधर की किताबें जुटा कर पढ़ा करता था जिसमें प्रायः  मेरठ से छपने वाले सस्ते उपन्यास हुआ करते थे। वेद प्रकाश, ओम प्रकाश, रीता भारती, गुलशन नंदा आदि आदि। गांव में ये किताबे कौन लेता पता न चलता पर आदान प्रदान के जरिये पूरा गांव पढ़ा करता था। गर्मी की दोपहरी में दुछत्ती पर चारपाई में लेटकर पढ़ने का सुख, रात में चोरी से किरोसिन के दीपक में इन प्रेम, रहस्य, रोमांच, अपराध, मार धाड़ से लबरेज किताबों में डूबने के सुख को वही समझ सकते है जो इसे भोग चुके हैं।

मौरावां में भैया ने सदस्य बनवाने के साथ तमाम किताबे सुझाई जिनमें मंटो, शरत चन्द , इस्मत चुगताई जैसे कुछ नाम याद आते हैं। दो साल उस कस्बे में रहा और मेरे ख्याल से 200 से 250 किताबें पढ़ी होंगी। पिता जी ने पहले डॉट लगाई थी फिर बाद में वो भी मेरे कार्ड पर किताबें निकलवाने लगे, कई शाम हम दोनों किसी मोटी किताब लिए अपने अपने में डूबे रहते। इसका परिणाम मेरे 12वी के अंकों पर पड़ा, गणित में बस 100 में बस 37 अंक। खैर इससे फर्क क्या पड़ता था, पिता जी इसमें खुश थे कि पास हो गए यही क्या कम है।

इसके बाद उन्नाव के जिला मुख्यालय में स्नातक के लिए जाकर रहना शुरू हुआ। वहाँ जिला पुस्तकालय में सदयस्ता लेने के लिए बड़ी जहमत उठानी पड़ी,तमाम चीज़ो के साथ कचहरी से एफिडेविट भी मांगा गया। मुझे पढ़ने का इतना नशा कि उसी दिन दौड़ भाग कर सारी खाना पूर्ति की। शाम तक दो किताबें मेरे हाथ में थी, सोचो कौन सी ? देवकीनंदन खत्री कृत चंद्रकांता के दो भाग। वहां के तमाम किस्से , अलग अलग टुकड़ो में पहले लिख चुका हूँ। एक कार्ड पर दो किताबें निकलती थी, बाद में मैंने अपने दो कार्ड बनवा लिए और ताबड़ तोड़ ( सच में ) किताबें पढ़ी, शायद 300 से 400 के बीच।

उन्नाव में एक गांधी पुस्तकालय भी है जो शाम व सुबह के समय ही खुलता है शिवाय सिनेमा के पास। बाद में यह मेरे लिए ज्यादा अनुकूल पढ़ने लगा। शाम को ट्यूशन पढ़ाकर लौटते वक्त अपनी साइकिल वही रुकती और पुस्तकालय बन्द होने तक वही रहता। मेरी साईकल के हैंडल पर एक कैरियर लगा होता जो विशेषतौर पर इन्हीं किताबों के लिए लगवाया गया था। यहाँ भी दो कार्ड बने 200 से 300 किताबें पढ़ी गयी। बाद में कार्ड भाईयों को दे दिया और वो निकलवा कर पढ़ते रहे।

फिर अहमदाबाद में अलग अलग जगहों पर पुस्तकालय गया। मेमनगर वाली सरकारी लाइब्रेरी,शुभ लाइब्रेरी, स्पीपा की लाइब्रेरी, विवेकानंद लाइब्रेरी, राणिप, और आखिरी वो जहां से आखिरी अटेम्प्ट देना हुआ। यहाँ पर साहित्य की एक भी किताब न पढ़ना हुआ। सब में अपनी किताबें ले जाकर पढ़ना होता था। 2012 से 2019 तक अहमदाबाद के पुस्तकालयों में सिविल सेवा की ही किताबें पढ़ी गयी।

इसके बाद दिल्ली आना हुआ,  मेरी अकादमी का सरदार पटेल नाम से एक समद्ध पुस्तकालय हैं।यहाँ फिर से साहित्य पढ़ना शुरू हुआ। अब अपनी मन की किताबें यहाँ बोल कर ख़रीदवाई जा सकती थी। कुछ महत्वपूर्ण किताबे जो पढ़ने से रह गई, वो लिस्ट बना कर दे दिया। सब खरीदी गई। जब भी उधर जाना होता, इंचार्ज बोलते कि पढ़ तो बस आप ही रहे हो। अब मोटे उपन्यास की जगह पत्रिकाओं ने जगह ले ली, शायद समयाभाव।

इस लंबे चौड़े अतीत लेखन का उद्देश्य पोर्ट ब्लेयर के अनुभव को लिखना मात्र था।दरअसल अभी तक सभी पुस्तकालयों में किताबें लेने के लिए तमाम ताम झाम , मगजमारी करनी पड़ती थी। पोर्ट ब्लेयर में समय कट न रहा था। नेट स्पीड की मध्यम गति से परेशान , समय काटे न कटे। पुस्तकालय का ख्याल आया पर लगा कि मेंबर बनना काफी तामझाम रहेगा। 

खैर एक रोज पहुँच गए, परिचय दिया। इतना काफी था बड़ी गर्म जोशी के साथ स्वागत और यह छूट कि आप को जो भी, जितनी भी किताबें पढ़नी है निकलवा लीजिए। "आप लोगों के लिए अलग रजिस्टर है  नाम व मोबाइल no दे दीजिए बस" 
ऐसे समय में अपने पद व उसके साथ मिलने वाले इस तरह के विशेषाधिकार बड़े सुखद अनुभूति देते हैं, कहाँ तो वो दिन कि जब 2 किताबें के लिए दुनिया भर की कागजी कार्यवाही और अब ये दिन।

ऊपर दूसरे फ्लोर पर किताबें तलाश रहा था और साथ आया बन्दा, वहाँ बैठी सहायक को निर्देश देकर गया कि साहब की चुनी किताबें, लेकर नीचे साथ आना। यद्यपि मैंने उस सहायक को विनम्रतापूर्वक  अपनी किताबें उठाने से मना कर दिया तथापि पोर्ट ब्लेयर के मुख्य पुस्तकालय के कर्मचारियों की गर्मजोशी सदैव के लिए मानस पटल पर अंकित हो गयी।

© आशीष कुमार, उन्नाव 
दिनांक 19 मार्च, 2020
(हैडो, पोर्ट ब्लेयर)


शनिवार, 7 मार्च 2020

NO AGE LIMIT

"न उम्र की सीमा हो "

लिखने वाले के लिए यह जरूरी नहीं वो हमेशा अपने ही अनुभव लिखे। पिछले दिनों मुझे दूसरों के जरिये कुछ बड़े गजब के अनुभव सुनने को मिले, उन्हीं में से यह एक ..

तमाम लोगों को काम करने का इतना गहरा चस्का होता है या कुछ और ..जिस उम्र में शांति से घर में आराम करना चाहिए वो हिलते डुलते काम में लगे रहते हैं। मैं बात सरकारी सेवा की कर रहा हूँ। एक अकादमी में एक साहब   पढ़ाने आते थे। बहुत ज्यादा ही योग्य, जितनी हमारी उम्र उससे दोगुना उनका अनुभव । कितनी ही किताबें प्रकाशित हो चुकी थी। जब वो पढ़ाते तो खड़े खड़े काँपने लगते। थोड़ी में उनकी साँसे फूलने लगती,बेचारे बड़ी ही मेहनत से पढ़ाते अब यह अलग बात है कि साहब 15 क्लास में 5 पन्ने की भी विषयवस्तु न पढ़ाई होगी। वो खुद बताया करते कि उनके बच्चे मना करते है कि अब आप पढ़ाने न जाया करिये, मैं खुद न मानता हूँ। इस बीच क्लास में पीछे से आवाज आती कि हां हम लोग तो फालतू हैं, जाहिर है साहब के जर्जर हो चूके कानों  तक ये मजाक न पहुँच पाता।

खैर आज एक बहुत ही बड़े साहब की कहानी बतानी है। साहब इतने बड़े इतने बड़े हैं कि पुछो ही मत और उनकी अवस्था क्या हो चुकी है वो आप आगे पढ़ने जा रहे हैं।

जिनके मुख से मैंने यह घटना सुनी वो साथी भी सिविल सेवक हैं। मित्र का प्रशिक्षण चल रहा था। उन्हें पता चला कि बड़े वाले साहब का उनके क्षेत्र में दौरा है, साथी , साथी के बॉस सब लोग आनन फानन में क्षेत्र पहुँच गए। मित्र अपनी गाड़ी से उतर कर, बहुत बड़े वाले साहब के पास पहुँचे। बड़े वाले साहब अपनी कार से उतर ही रहे थे। मित्र ने जाकर अभिवादन किया और बड़े साहब उतर कर खड़े हुए। मित्र ने बड़े साहब से बताया कि सर अपने पिछले वर्ष  मेरे UPSC वाले साक्षात्कार में सदस्य थे, 

अब इसे संयोग कहे या क्या कहे ठीक उसी समय साहब की पैंट उतर ( दरअसल सरक ज्यादा उचित शब्द है) कर नीचे जूतों पर जा टिकी। मजे की बात यह कि साहब को इसका आभास ही नहीं, मित्र को बताना पड़ा कि साहब आपकी पैंट उतर गयी है। इसी बीच उनका सहायक आ गया और बड़े साहब की पैंट में दोनों तरफ से अंगुली फ़साई और कमर में लाकर टिका दी। ( आपको हेराफेरी फ़िल्म के बाबूराव याद आ रहे होंगे, बाबूराव थोड़ा जवान थे कम से कम झुक सकते थे पर ये साहब इस दशा में थे कि झुक भी न सकते थे )

मेरा हँस हँस कर पेट फूल गया और मैंने तिखार तिखारकर (तिखारना एक बैसवाड़ी बोली,अवधी का शब्द है जिसका अर्थ है खोद खोदकर/रस ले लेकर  पूछना ) खूब पूछा, विस्तृत जानकारी ली मसलन कि क्या साहब ने बेल्ट न पहनी थी या तुम्हारे कहते ही कि उन्होंने उसका साक्षात्कार लिया था, उनकी पैंट सरक गयी और उन्होंने आपके बोलने पर क्या बोला था आदि आदि।

हालांकि बड़े साहब की टीम बहुत ही बढ़िया कार्य में लगी है पर आप ही सोचिए ऐसा भी क्या जुनून कि इस अवस्था में कार्य करते रहा जाय। अनुभव व योग्यता कितनी ही अधिक क्यों न हो क्या देश के अन्य लोगों के लिए बड़े साहब को जगह खाली न कर देनी चाहिये। 

( अपनी बात : इन दिनों हम 4g चलाने वाले लोग, भटकते भटकते 2g स्पीड वाली जगह में चले आये हैं, अब तमाम चीजों के साथ हम लिखने पढ़ने वालों लोगों को मन्थर, जर्जर गति के नेट स्पीड से बड़ी दिक्कत हो रही है। रचनात्मकता उछाल मारती जा रही है पर नेट स्पीड है कि उसे दबाये ही जा रही है। तमाम मजेदार अनुभव संग्रह हो गए है, ऊपर वर्णित घटना इस कदर भायी कि लगा इसे पाठकों को कैसे भी हो जरूर पहुँचनी चाहिये।
कहानी सुनाने वाले मित्र बहुत डरे कि लिखना मत, मुझे टैग मत करना, वरना बड़े साहब तक अगर बात गयी तो मेरी पैंट उतरवा देंगे। हमने उन्हें भरोसा दिया कि शरलक होम्स भी आएंगे तो भी जान न पाएंगे कि बड़े साहब कौन थे, बशर्ते आप मुँह न खोले ) 

( उक्त रचना काल्पनिक है, किसी नाम, घटना से इसका कोई लेना देना नहीं है )

© आशीष कुमार, उन्नाव। 
8 मार्च, 2020 ( पोर्ट ब्लेयर से ) 

शुक्रवार, 17 जनवरी 2020

repetitions

#दोहराव के मायने 

तमाम बार जब तुम्हें
बुलाता हूँ अपने करीब
नहीं बेहद करीब 
और दोहराता हूँ 
वही बातें
कि तुम मुझे 
बेहद पसंद हो

या कि मैं तुम्हें बहुत 
ज्यादा चाहता हूँ,
करता हूँ जुनून से
शिद्दत से, तुमसे प्यार

तब तुम मेरे इन 
दोहराव से कभी
न परेशान होना
या कि ऊबना

इन तमाम दोहराव
में निहित अर्थ 
यही है कि तुम 
मेरे लिए हमेशा 
रहोगी सर्वोपरि
और मेरे तुम्हारे प्रति प्रेम
कभी न होगा जीर्ण 

© आशीष कुमार, उन्नाव।
( 17 जनवरी 2020 )

with you

#तुम्हारे साथ

मैं चाहता हूँ रहना
 हमेशा ही तुम्हारे साथ 
मैं चाहता हूँ जुनूनी प्रेम
ताउम्र तुम्हारे साथ,

मैं चाहता हूँ जीना भरपूर 
हर पल, हर क्षण
केवल व केवल 
तुम से ही , प्रिय केवल तुम्हारे साथ।

©आशीष कुमार , उन्नाव।
(17 जनवरी, 2020)

Death of love

#ठंड

कॉफी पीने के बाद वो बाहर खुली छत के किनारे खड़े थे। कई दिनों से वो मिल रहे थे तमाम बातें भी करते। दोनों ही एक दूसरे की बातें बड़े गौर से सुनते, प्रायः उनकी आंखों में खुशी की एक चमक दिखती। 
वो काफी देर से बाहर खड़े थे। लड़की अपनी धुन में बातें किये जा रही थी, लड़का हूँ हा करते हुए वो उसके गोरे, नाजुक हाथों को गौर से देख रहा था। वो बहुत देर से उन हाथों को छूना चाहता था पर अजब कसमकश थी। वो छू न पा रहा था। वो शंकित था कि पता नहीं उसके भावों को कहीं गलत न समझा जाय।लड़की ने अपने दोनो हाथ जीन्स की पॉकेट में डाल रखे थे।

लड़के से जब रहा न गया, उसने पूछा कि तुम्हारे हाथों को काफी ठंड लग रही है क्या ? 
"हां,आज काफी ठंड है । " कहते हुए उसने अपने हाथों को और भीतर कर लिया।

खलील जिब्रान ने कहा है कि जो कहा गया पर समझा नहीं  गया और जो समझा गया पर कहा न गया के बीच में तमाम मुहब्बत की मौत हो जाती है।

(17 जनवरी, 2020)
© आशीष कुमार, उन्नाव।

गुरुवार, 9 जनवरी 2020

poem :fresh rose

कविता : ताजा गुलाब 

"जब तुम मेरी करीब होती हो
मुक्त मन से, आवरण रहित,
तुम मुझे एक ताजे गुलाब 
सरीखी लगती हो
अति कोमल, नाजुक 
भीनी भीनी खुसबू से भरी"

10 जनवरी, 2020,😌
© आशीष कुमार, उन्नाव

सोमवार, 6 जनवरी 2020

wait

इंतजार

"मैं थोड़ी देर में करती हूँ"
"अरे कोई नहीं "
" अरे मैं करती हूँ, पक्का"...
और वो हमेशा की तरह उसके फ़ोन का इंतजार करता रहा, यह जानते हुए भी कि घर में हजार तरह के काम होते हैं।

6 जनवरी 2020
© आशीष कुमार, उन्नाव


Poem : promise

एक वादा

प्रिय सुनो,
मुझसे करो एक वादा
नहीं नहीं 
शंकित न हो
बस एक छोटा आसान सा वादा

वादे हमेशा ही
आसान व सहज होने 
चाहिए ताकि वो निभाये 
जा सके ताउम्र 
बगैर किसी दुविधा के।

मुझे करो बस इतना
वादा कि हम आज 
जितने करीब है
उतने करीब रहेंगे उम्रभर

जैसे पकड़ लेता हूँ हाथ
सुलझा देता हूँ आपके बाल
अपनी अगुलियों से
लगा लेता हूँ गले से
निःसंकोच,

वादा करो कि जैसे
तुम भी टिका देती हो 
अपना खूबसूरत चेहरा 
मेरे कंधों पर,
सिमिट आती हो आगोश में मेरे
बगैर किसी परवाह के
सहलाती हो मेरे हाथों को
कभी कभी अनायास ही

आ जाती हो कभी भी, कहीं भी
बुलाने पर मेरे
नहीं करती हो अस्वीकार
साथ में देखने को चलचित्र
पढ़ती हो मेरे चेहरे को 
समझती जाती हो मेरे हर इशारे को
और उन तमाम बातों को
जो प्रेम में कभी कही नहीं जाती है।

प्रिय, बस इतना सा वादा करो 
कि उम्र के किसी भी दौर में
कैसे भी मोड़ पर 
जब हम मिले तो
रहे कम से कम इतना करीब
जितना कि इन दिनों हैं।

*6 जनवरी, 2020
©आशीष कुमार, उन्नाव 


रविवार, 5 जनवरी 2020

कविता 6: A love latter

 कविता 6: एक प्रेमपत्र

एक सुहानी रात
तुमने कहा कि
मैं लिखूँ एक प्रेमपत्र
जिसमें बतलाऊँ कि
मेरे हदृय में क्या 
जगह है आपकी,
क्या मायने है आपके होने
मेरे जीवन में। 

सुनो प्रिय,
मैं कोई उपमा
नहीं दे सकता
जो परिभाषित कर
सके हमारे 
अनाम रिश्ते को

मैं अमिधा में 
ही कहूँगा कि
तुम सबसे खास हो
सबसे करीब,
सबसे राजदार

तुम्हें सुन सकता हूँ
अनवरत, अविचल
बोल सकता हूँ तुमसे
हर वो बात जो
किसी से कभी नहीं
कहता,

कर सकता हूँ वर्षों इंतजार
आपके आने का,
नहीं रखता अपेक्षा जरा सी भी
न ही कोई उम्मीद। 

तुम जब भी साथ होती हो
तब महसूस करता हूँ
दुनिया की सबसे अनमोल खुशी
आँखों में आ जाती है
बयाँ न कर सकने वाली चमक।

दिसंबर की सबसे ठंढी शाम 
पार्क की कोने वाली बेंच पर,
बैठ सकता हूँ कई घंटे
तुम्हारे साथ, 
बस हाथों में लेकर हाथ। 

दे सकता हूँ और भी 
लंबे, चौड़े व गहरे 
आत्मीय बयान 
शर्त यह है कि आप 
समझ सके मुझे 
और माप सके 
अपनी जगह को
मेरे हदृय में ।

*5 जनवरी, 2020
© आशीष कुमार, उन्नाव







बुधवार, 1 जनवरी 2020

2 पेन व डायरी

                                                           2 पेन व डायरी

कुछ दिन से वो चौकीदार अंकल बहुत याद आ रहे है। काफी साल पहले की बात है , वो हमारे पड़ोसी थे। उस घर में तमाम किरायेदार रहा करते थे। मेरा रूम , उनके सामने ही था। मस्त मौला आदमी थे। हमेशा कुछ न कुछ मजाकिया बातें किया करते थे। उनके कुछ छोटे २ किस्से याद आते हैं।

१.  पहला किस्सा वो था जिसमें वो एक ऐसे आदमी का जिक्र करते जो बिलकुल भी पढ़ा लिखा नहीं था। ऐसे लोग काफी गुनी होते हैं। उसने लोगों को देख देख कर कुछ बातें सीख ली। उन्हीं बातों में एक बात उस अनपढ़ आदमी ने यह भी सीखी। उसकी जेब में हमेशा दो पेन व एक छोटी पॉकेट डायरी जरूर होती। एक बारात में वो इस रूप में गया। अच्छे से बाल सवारे , साफ स्तरी किये हुए कपड़े, शर्ट की जेब में दो पेन , एक छोटी पॉकेट डायरी। उसी बारात में किसी लड़की ने इन सज्जन को देखा और उसके मन में बड़े मधुर विचार पनपे। लड़की पढ़ी लिखी व काफी समझदार थी। उसने हमेशा से सोचा था कि किसी पढ़े लिखे इंसान से प्रेम विवाह ही करेगी। अंकल खूब हसँते -हसँते  बताया करते थे कि इस तरह से एक अनपढ़ इंसान ने दो पेन व एक पॉकेट डायरी के सहारे सुंदर -पढ़ी लिखी समझदार बीवी पा ली।

२.  अंकल ने मुझको लेकर एक भविष्यवाणी की थी कि देखना आशीष तुम एक दिन बहुत बड़ी नौकरी पाओगे। जब मैं उनसे पूछता कि ऐसा क्यों लगता है तो कहते कि तुम इतनी मोटी -२ किताबें जो पढ़ते हो। मैं बहुत मुस्कुराता और कहता कि ये तो फालतू के नावेल हैं , जो बेरोजगार खाली इंसान समय गुजारने के पढ़ा करते हैं। उन दिनों गोर्की का मां, शरत बाबु का देवदास, टालस्टाय का वॉर एंड पीस, कामु का प्लेग जैसी किताबें मेरे बिस्तर पर पड़ी रहती। रूसी भाषा के कुछ अनुदित नावेल 700-800 पेज के हुआ करते थे। बाद के तमाम सालों में मुझे अंकल वो तर्क याद आता रहा कि जो मोटी 2 किताबें पढ़ सकता है वो बड़ी नौकरी करेगा।

तो अब कहानी खत्म करू, नहीं कहानी तब तक खत्म न होगी जब तक आपको यह न बता दूँ कि अंकल चौकीदार जरूर थे पर रात में भी वो अपनी शर्ट में दो पेन व एक छोटी डायरी लेकर जाया करते थे।

(1 जनवरी 2020, दिल्ली)
© आशीष कुमार, उन्नाव

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