शनिवार, 3 अप्रैल 2021

खजोहरा

खजोहरा 

होली के अभी कुछ दिन ही बीते हैं, खजोहरा का विचार होली वाले दिन आया था। दरअसल एक गुरु जी सामने पड़ गए थे तो याद आया कि ये तो बहुत पीटने वाले अध्यापक थे अपने जमाने में। शिक्षक तो अभी भी हैं पर पता नहीं अब पहले की तरह से क्लास में पिटाई करते हैं कि नहीं। 

खजोहरा बचपन में किसी बड़े रहस्य की तरह था। क्लास के कुछ खुरापाती छात्र अक्सर इसके बारे में बात किया करते थे। खजोहरा के बारे में कहा जाता था कि जो कोई उसे छुएगा, उसे बहुत ज्यादा खुजली होने शुरू हो जाएगी। खुजलाते खुजलाते अंग लाल पड़ जायेगा।


Class में पीछे बैठने वाले छात्र, जिन पर हर गुरु जी कुछ ज्यादा ही पीटने के लिए उत्सुक रहा करते थे, अक्सर ऐसे plan बनाया करते थे कि किसी दिन खजोहरा लाकर गुरु जी की कुर्सी पर डाल देंगे, फिर गुरु जी की खुजली कर करके जो हालत पतली होगी, वो दर्शनीय होगी।

जैसा कि सार्वभौमिक तथ्य है कि क्लास में आगे बैठने वालों और पीछे बैठने वालों में कभी नहीं बनी, मेरी भी उनसे कभी नहीं बनी। गुरु जी के प्रिय विद्यार्थियों में हमेशा रहा पर खजोरहा के लिए न जाने क्यों उत्सुकता बनी रही।

हमेशा सोचा करता कि कैसा होता होगा खजोहरा। शायद एक बार गांव के पास जंगल में घूमते हुए किसी ने खजोहरा का पेड़ दिखाया था। कुछ काले भूरे रंग की रोयेंदार फली थी, बताया गया कि यही खजोरहा है। मैंने सोचा कि लोग इसको कैसे लेते होंगे, मान लो उसको खुद ही लग गया तो ? 

खैर खजोरहा के साक्षात प्रयोग तो न देखे पर उससे जुड़ी stories बहुत सुनता रहा कि अमुक को किसी ने खजोरहा डाल दिया था तो ऐसा हुआ वैसा हुआ ..आदि आदि। 

होली में अक्सर यह कयास लगाये जाते कि अमुक मोहल्ले वाले लड़कों के पास खजोरहा है, उनसे रंग नहीं खेलना, उनसे बचके रहना...हालांकि यह कयास कभी सच न साबित हुआ।

आज यह post लिखते वक्त भी यह संदेह हो रहा है कि वास्तव में खजोहरा जैसी कोई चीज सच में होती भी है या फिर यह किदवंती मात्र है। 

© आशीष कुमार, उन्नाव।
03 अप्रैल, 2021।

शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

Last Meeting

आखिरी मुलाकात

सुनों
एक दिन
अनायास ही कहोगी
कि अब यह हमारी
अंतिम मुलाकात है

याकि फिर 
एक रात देर में
करोगी आखिरी फ़ोन
बतलाने के लिए
कि अब न हो सकेगी
कभी हमारी बात 
उस दिन, उस रात
के संवेदनशील क्षणों 
में आपको जरा 
भी ख्याल न रहेगा
कि कैसे तुम
मिटा रही हो
एक अमिट प्रेम को

अपने सुखद भविष्य
के सुखद सपने
देखते हुए,
 जब तुम आखिरी
विदा लेने की
असफल कोशिस
कर रही होगी

उस वक़्त
मैं चुपचाप
खामोशी से
तुम्हारे उस 
आखिरी फैसले 
पर सहमति दूँगा
हमेशा की तरह

क्योंकि मैं
जानता हूँ
कि 
अनन्य प्रेम
को यूँ ही एकायक
खत्म न किया
जा सकता है

और प्रेम
में आखिरी
बात, मुलाकात
जैसा कुछ न होता है

सुनो प्रिय
तुम्हारे आखिरी
फैसले पर मेरी
खामोश सहमति
हमेशा बाध्य 
करती रहेगी

तुम्हें वापस
लौटने को
अनन्य प्रेम
की अनन्त, 
असीम गलियों में। 

©आशीष कुमार, उन्नाव
दिनांक- 02 अप्रैल 2021। 



शनिवार, 21 नवंबर 2020

बथुए का साग और मास्टर जी

 

बथुए का साग और मास्टर जी 


आज जब सब्जी वाले के ठेले पर बथुए का साग देखा तो बहुत खुशी  हुयी। delhi में देशी चीज मिल जाये तो अलग ही आनंद मिलता है। वैसे कुछ दिनों से  पालक तो थोक के भाव खूब मिल रही थी पर बथुआ पहली बार दिखा। अब तो बढ़िया स्वादिष्ट साग व् पराठे बनेंगे , यही ख्याल बुनते हुए घर आ रहा था , इसी वक़्त मास्टर साहब याद आ गए। 

कक्षा 9  व 10 के समय वो मेरे अध्यापक थे। उनकी छवि बहुत सख्त व कंजूस किस्म के इंसान की थी। Government school me पढ़ाने के साथ साथ अलग से टूशन भी पढ़ाया करते थे। स्कूल से दूर एक बाग में नलकूप की एक कोठी थी , उसी में वो पढ़ाया करते थे। गुरु जी के बारे में तमाम कहानियां छात्रों के बीच में प्रचलित थी।जैसे कि उनके पास बहुत पैसे है फिर भी बड़ी कंजूसी से रहते है , एक कथा के अनुसार किसी बदमाश किस्म के छात्र ने गुरु जी को देसी असलहा दिखाकर उनसे उनकी सायकल लदवाकर 100 मीटर तक चलवाया था। दरअसल गुरु जी स्कूल में बहुत ज्यादा ही पीटा करते थे , इसके लिए भी लोग कहते थे जैसे कोई धोबी अपने खोये गधे को मिलने पर तबियत से पीटता है , वैसे ही गुरु जी छात्रों को पीटा करते थे। खैर वो अलग ही दौर था , अलग ही स्कूल हुआ करते थे , जहाँ अभिवावक खुद जाकर बोलते थे कि मास्टर साहब लड़का बिगड़ने न पाए मतलब बस हाथ पैर न टूटे बाकि चाहे जैसे पीटो। 


    

वैसे  तो तमाम किस्से है, जैसे कि एक जाड़े की सुबह मै tution जरा देर से पहुँचा तो गुरु जी ने बॉस के चार डंडे कस के हाथ में चिपका दिए , इस आरोप के साथ की रास्ते में कहीं आग लगाकर तापने बैठ गया होगा। उम्र 14 की थी , घर से स्कूल 10 किलोमीटर दूर था। सुबह 6 बजे पहुंचना था , पहला दिन था न पहुंच पाया तो गुरु जी ने माहौल बनाने के लिए पीट दिया। मेरे साथ दो चार और साथी थे वो पिटे। गुरु जी को टूशन के पैसे से बड़ा मोह था। डरे भी रहते कि कहीं कोई देख न ले , शिकायत न कर दे। आते व् जाते वक़्त सख्त हिदायत दे रखी थी कि एक साथ न निकलना ( वरना लोग देखते कि गुरु जी टूशन से बहुत पैसे छाप रहे हैं ). मेरे साथ में एक दलित छात्र भी टूशन पढ़ा करता था , उसको वो बड़ा बेइज्जत करते। उम्र छोटी थी पर इतना जरूर समझ आता कि उसके साथ वो ठीक न कर रहे है।किसी को fee देने में जरा भी देर हुयी कि समझो गुरु जी का पारा चढ़ा। 


गुरु जी को मुझसे कुछ स्नेह सा था। स्कूल के रास्ते में एक मेला लगा करता था। गुरु जी को मेरी आर्थिक स्थिति का ज्ञान था।एक दिन बोले मेला देखने जाओगे , मैंने कहा- नही , वो बोले अरे चले जाओ 2 रूपये मै दे रहा हूँ बस अगले महीने ध्यान से वापस जरूर कर देना। दो रूपये को कैसे खर्च करना है वो भी बता दिया पर मैंने गुरु जी को मना कर दिया। वजह आप समझ ही सकते हैं। 


गुरु जी की एक ही बेटी थी , सुनने में आता था कि उन्होंने अपने भाई के बेटे को गोद सा लिया है पर वो लड़का गुरु जी के सिद्धांतो में खरा न उतरा। बथुए के साग वाली बात भी बता रहा हूँ बस थोड़ी सी भूमिका और बना लूँ। उन्हीं दिनों उनकी बेटी , माँ के साथ आगे की पढ़ाई के unnao में जाकर रहने लगी। गुरु जी हर सप्ताह के अंत में वहाँ जाते और सोमवार को वापस आ जाते। शनिवार को जब वो गांव से उन्नाव जाते तो तमाम राशन पानी में बथुआ भी जाया करता। गुरु जी बथुए की दिल खोल कर प्रसंशा किया करते। मसलन कि बहुत पौष्टिक , सेहत के लिहाज से बहुत उपयोगी चीज है , बथुआ। आप सोच रहे है कि इसमें क्या खास बात है--- रुकिए गुरु जी बथुआ भी बाजार से न खरीदा करते थे। उनके अनुसार वो अपने गांव के कुछ छोटे छोटे लड़कों से यह काम कराया करते थे। उनके अनुसार 50 पैसे , एक रूपये में यह लड़के झोला भर बथुआ ला दिया करते है। मुझे उस टाइम भी यह लगता था कि गुरु जी उन लड़कों को इतने कम रूपये देकर शोषण कर रहे हैं पर कही दूसरे बहाने से मुझे पीट न दे , इसलिए मै भी इस अन्याय पर चुप ही रहा। 

पढ़ाई के बाद कुछ दिन तक तो गुरु जी से सम्पर्क रहा पर धीरे २ वो टूट गया।अब खबर न है कि वो किस हाल में हैं और अब बथुआ तोड़ कर लाने पर गांव के छोटे छोटे लड़कों को कितने रूपये देते हैं।  

©आशीष कुमार, उन्नाव।

21 नवंबर, 2020।

 






 









 

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2020

Chandni chauk

#चाँदनी चौक 

मेरी उस पर नजर पड़ी ही थी कि वो पास आ गया,
"भाई, ले लो। market में 1900  का बिकता है, मैं 500 में दे दूंगा। 
"नहीं "मैंने power bank पर हल्की सी नजर डाल कर नजर फेर ली। 
" साहब Samsung का है , सस्ते में दे रहा हूँ। चोरी करके लाया हूँ। नशा करने जाना है.. ले लो आप।" 
"नहीं "
उसके हाथ में दो पेन ड्राइव सी दिख रही थी।
" भाई, सब ले लो 500 में "  
"नहीं" 
"अच्छा 400..300..200 में भी नहीं " 
" नहीं " इस बार भी बस इतना ही बोला। उस नकली सी दिखने वाली समान न मुझे जरूरत थी, न ही उसके इस विचार में सहयोग करने की इच्छा कि चोरी का सामान है, नशा करने जाना है . 
लालकिला के ठीक सामने बेशुमार भीड़ में मेरी नजरें से फिर कुछ तलाशने लगी।

© आशीष कुमार, उन्नाव । 
29 अक्टूबर 2020।

शुक्रवार, 28 अगस्त 2020

करेली व अरहर की दाल

एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा 

वैसे ये करेली हैं, इनका स्वाद लाजबाब होता है। अरहर की गाढ़ी दाल, करेली की प्याज वाली बढ़िया खरी खरी सूखी सब्जी व चावल ( अगर थोड़ा चिपचिपे वाले भात बन जाय तो क्या ही पूछना ) ..इस पर बढ़िया शुद्ध देशी घी डालिये और स्वाद का अलौकिक आनंद लीजिये।

-आशीष

बुधवार, 26 अगस्त 2020

AAM PAPAD OR AMAVAT

अमावट/आम पापड़ 

पता नहीं जब आप इसे पढ़ने जा रहे, उससे पहले उक्त शब्दों को सुना है या नहीं। अगर आप गांव देहात से जुड़े है तो आपने अमावट के बारे में जरूर सुना होगा। अमावट यानी जिसको सुनकर ही मुँह में पानी आ जाय, क्या बच्चे क्या जवान सबके मुँह को भाने वाला। 

अभी अमावट खाते खाते इसके तमाम पहलुओं पर मन विचार करने लगा। अच्छा बता तो दूँ कि अमावट यानी क्या ...फलों के राजा आम के बारे में तो आप जानते ही होंगे। अमावट , Mango के रस से बनाया जाता है। आमों का रस निकालिये, एक कपड़े पर उसकी परत बनाइये, धूप में सुखाइये। अगले दिन उसी परत पर यही किया दोहराइए। आपको कई दिनों तक ऐसा करना पड़ेगा। तब जाकर तैयार होगा अमावट, जिसे ज्यादा साफ सुथरी भाषा में लोग आम पापड़ कह देते हैं।
मेरा जब भी home जाना होता, mother से एक ही फरमाइश होती कि कहीं से अमावट खरीद लेना। धीरे धीरे लोग अमावट बनाना बन्द कर रहे है, वजह इसमें बहुत ताम झाम होता है और यह बड़ी मेहनत व धैर्य का काम है।

मैंने ऐसा सुना है कि मेरे दादा के childhood में आम की बहुत बड़ी बाग हुआ करती थी। रोज बैलगाड़ी भर आम आया करते थे। मेरे बचपन मे पुरानी बाग के एक्का दुक्का पेड़ बचे थे, बड़े जबर व तगड़े। हमारे बचपन में एक झोला आम न मिलते तो bullckcart भर रोज के आम वाली बात फर्जी लगती।

खैर मेरे बाबा ने फिर से बाग लगाई, पुरानी बाग में देसी पेड़ ज्यादा थे। इस बार बाबा ने मीठे व स्वादिष्ट पेड़ो की पौध तैयार की। पेड़ रोपे गए, वो बड़े हुए और हमने अपनी आँखों से देखा। किसी किसी दिन बाग में 4 से 5 बोरा आम इक्क्ठा होते। घर आते। अब इतने आमों को खाये कौन..कुछ इधर उधर बाटे जाए । 
बचे आमों  दादी को बड़े से कठोलवा ( लकड़ी का बना बड़ा सा भगोना/ओखली) में मूसल से मसल मसल कर आमरस बनाते देखा। छत पर अमावट के लिए तमाम कपड़े पड़े रहते। वैसे अगर आप अमावट को बनते देख ले तो शायद कभी खाने का मन न करे। तमाम मखियाँ, पीली बर्र आमरस चाटने को बेताब दिखेंगी। आमरस को निकाल कर कपड़ो पर रोज परत बनाने का चाची करती थी। आम का सीजन खत्म होने पर घर में 50/70 किलो तक अमावट तैयार होता। यही हाल मौसी के घर पर भी देखा। मुझे याद है एक बार उनके घर 1 कुन्तल अमावट बेचा गया था। घर के खाने के लिए लोग अच्छे व मीठे आमों के रस को अलग निकाल कर अमावट के अच्छे साफ टुकड़े तैयार करते। बाकी काला, खट्टा, गीला अमावट बेचने को तैयार किया जाता। जितना साफ अमावट, उतने बढ़िया दाम।
( आम पूूड़ी )

इस बार भी घर गया तो अमावट याद आया। मां से पूछा कि अमावट तो बोली अब लोगों ने अमावट बनाना बन्द सा कर दिया। अबकि औरतों से कहाँ इतना काम हो पायेगा। एक दो लोगों को बताया कि उन्होंने अपनी जरुरत भर के लिए अमावट बनाया है, बेचेंगी नहीं। खैर , मुझे इस बार भी मां ने किसी जगह से अच्छी क्वालिटी के अमावट का जुगाड़ कर दिया। 
एक बात बताना भूल गया, अमावट को चाहे तो आप सूखा खाये अगर मन करे तो उसे एक दिन पहले पानी मे भिगो कर बढ़िया मीठी चटनी के रूप में खाये, मजा दोनों तरह से आएगा।
(अमावट को दांतों से चबाने में अलग ही आनंद आता है)

थोड़ा बौद्धिक स्तर पर बात करें तो अमावट के रूप में हमारे यहाँ अतीत से food processing का चलन है। लोग जब बहुत मात्रा में आम गिरने लगते तो उसके रस को धूप में सुखाकर संरक्षित कर लिया करते। उसे पूरे साल ( कई बार 2, 3 साल) तक उपयोग में लाते।

तो अब आप बताइए कि आप ने अमावट को चखा है या अभी इसके स्वाद से वंचित है ?

© आशीष कुमार, उन्नाव।
26 अगस्त, 2020।


रविवार, 16 अगस्त 2020

गाँव का आनंद



सिके हुए दो भुट्टे सामने आए
तबियत खिल गयी
ताज़ा स्वाद मिला दूधिया दानों का
तबियत खिल गयी
दाँतो की मौजूदगी का सुफल मिला
तबियत खिल गयी

बाबा नागार्जुन की एक कविता






धीमी आंच में नरम नरम , नमक के व नींबू के साथ

शनिवार, 1 अगस्त 2020

FRIENDSHIP DAY


आज किसी ने फ़्रेंड्स डे के लिए व्हाट्स एप पर विश किया तब ही याद आया इसके बारे में। इन दिनों इतने दिन मनाये जाने लगे हैं कि आये दिन कुछ न कुछ होता ही है।

मित्रता दिवस पर एक बात याद आ गयी। पिछले साल की बात होगी। मेरे फोन पर एक कॉल आयी। अहमदाबाद से कोई था। बोला कि " सर , आप मेरी दुकान पर चाय पीने आया करते थे, sir मैंने चाय की एक नई दुकान खोली है..बड़ी मेहरबानी होगी अगर आप उद्घाटन पर आए .." मैंने दिमाग पर बहुत जोर डाला पर याद न आया कि कौन है ये..एक गुजराती जब हिंदी बोलता है तो चीजें समझी तो जा सकती हैं पर पूरी तरह से स्पष्ट नहीं।
वो कह रहा था कि अमुक भाई ने no दिया है , आप लाइब्रेरी आया करते थे , वही मेरी दुकान है ..
मेरा मन खुशी से अभिभूत था कि उसके बुलाये में कितना प्रेम व सम्मान है .. पर मै तब तक अहमदाबाद छोड़ चुका था, इसलिए उसे विन्रमता से मना करते हुए यह वादा किया कि जब अहमदाबाद आना होगा तब उसके दुकान पर चाय पीने जरूर आऊंगा।

हालांकि आज तक न जान पाया कि वो कौन सी दुकान से था। शायद पुरानी किसी पोस्ट में अहमदाबाद की चाय की दुकानों पर लिख चुका हूँ। क्या गजब चाय बनाते हैं.. खूब गाढ़ी, कड़क , खुशबूदार। खेतला आपा ( खेत के भगवान यानी सर्प ..यही लोगो है उनका) की s.g. highway ( सरखेज- गांधीनगर राजमार्ग ) वाली दुकान तो बहुत ही नामचीन है। एक बार मे 400 - 500 लीटर के भगोने में चाय बनती है जो 10- 15 मिनट में खत्म भी हो जाती है .. टोकन के लिए लाइन लगती है। मेरे ख्याल से वो 24 घंटे खुली रहती है।

अब उसकी कई फ्रेंचाइजी खुल गयी हैं। शायद राजकोट से यह शुरू हुई थी। उनकी चाय का बड़ा यूनिक से टेस्ट है। मैं जहां तक सोच पता हूँ मेरे पास जिस दुकान का फ़ोन आया था वो शुभ लाइब्रेरी के पास थी। काफी पुरानी दुकान थी। बहुत ही कड़क चाय होती थी। वो अपने समय से ही चाय देता था, अगर जल्दी देने को कहो तो भड़क जाता था, उसका कहना था कि जल्दी के चक्कर मे टेस्ट से समझौता नहीं कर सकता।

मुझे अहमदाबाद की तमाम चाय की दुकानें याद आती हैं। स्पीपा ( गुजराती सिविल सेवा का संस्थान ) , सेटेलाइट के गेट के दिनों तरफ की दुकानों की चाय बहुत सही मिलती थी। एक पुदीना वाली चाय की बड़ी फेमस दुकान थी, जहां एक बार dr के साथ , बारिश में चाय पकौड़े खाने गए थे। न्यू राणिप , जहां मैं रहता था, वहां पर भी एक बहुत सही दुकान थी। अच्छा चाय भी बजट के अनुरूप मिल जाती थी। रेहड़ी वाले अध्दि चाय मांगते जो 5 रुपये में मिल जाती थी। वो दिन में कई चाय पीते।  तमाम किस्से हैं वहां के चाय से जुड़े ..

वैसे आपको यह तो याद है ही न , हमारे माननीय  के जीवन में चाय का बड़ा महत्व रहा है वो भी गुजरात से ही है और आज किस मुकाम पर हैं वो.. इसलिए जब मुझे अहमदाबाद से चाय की दुकान के उदघाटन के लिए प्रेम से बुलावा आया तो यह मेरे लिए बड़े ही सम्मान की बात थी, पर परिस्थिति वश उसमें जा न सका।

 तमाम पाठकों को मित्रता दिवस की शुभकामनाएं

(सृजन वंदे भारत मिशन की ड्यूटी पर एयरपोर्ट जाते समय, )
© आशीष कुमार, उन्नाव
2 अगस्त , 2020।

बुधवार, 29 जुलाई 2020

AKELE ME

अकेले में 

पहले के दिनों में
जब भी अकेले होता
मिलता स्व से 
करता चिंतन, मनन
व आत्मावलोकन।

इन दिनों
जबकि मैं 
आपके प्रेम में हूँ,
अकेले में मेरे विचारों 
का क्रेंदबिंदु केवल व केवल
आपका ही ख्याल आता हैं।

अकेले में 
बुनता हूँ तुमसे जुड़े 
तमाम ख्वाब
हवा देता हूँ 
तमाम कल्पनाओं को

अकेले में 
सोचा करता हूँ 
तुम्हारी बिल्लौरी आँखों
की असीम गहराई,
घनी बदली सरीखे
तुम्हारे लहराते बालों
से खेला करता हूँ.

अकेले में याद आती 
आपकी वो चितवन,
मोहक मुस्कान,
हँसमुख चेहरा
साथ ही वो 
तमाम कहानियाँ
जो तुमने सुनाई 

आशीष कुमार , उन्नाव
29 जुलाई , 2020 


तुम्हारी 'न '

प्रिय अगर तुम
मापना चाहो 
मेरे प्रेम की हद
तो सुनो

ये जो मजाक में
भी जो तुम मुझे 
अस्वीकार करती हो
या कह देती हो 'नहीं' 

यह मुझे गहरे तक 
उदास कर जाता है,
पल में लगती हो
कि तुम कितनी अजनबी
जैसे कि मेरा कोई हक 
न बाकी रहा हो।

© आशीष कुमार, उन्नाव
21 जनवरी 2020

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