मंगलवार, 31 दिसंबर 2019

Year end 2019

 एक और साल बीत गया !

तमाम सालों से एक आदत सी पड़ गई है, डायरी में हर साल का विश्लेषण करना। यह साल कई मायनों में अलग रहा, इस साल सबसे कम पढ़ना हुआ, एक तरह से किताबों से दूर हो गया। लिखना भी कम ही हुआ पर हमेशा की तरह कम लिखा पर जोभी लिखा गया, कहीं न कहीं प्रकाशित हुआ, जिसमें कादम्बनी जैसी ख्यातिलब्ध पत्रिका में एक कविता "आत्मबोध" का प्रकाशित होना, एक रूप में काफी बढ़िया उपलब्धि रही। 
साल की सबसे अच्छी बातों में एक यह रहा कि इस साल फिटनेस के लिए अच्छा समय मिल और तमाम वर्षो की दबी हुई ख्वाहिश पूरी होने के करीब है। 14 kg वजन कम करना , खान पान से समझौता किये बगैर काफी सुखद, सुकून भरा रहा। 
इसी दिसम्बर से  सुबह उठने की भी आदत पड़ गई। कितने ही साल से मैं हमेशा देर रात तक जगता और सुबह 9 बजे उठा करता था। जिम के शौक के चलते, रात में जल्दी सोने की व सुबह जल्दी उठने की आदत पड़ गई है। सुबह जल्दी उठने के गजब मजे होते हैं, जिस्म में एक अलग सी स्फूर्ति महसूस होती है। लेट उठने से सारा दिन आलस बना रहता था।
साल के अंत में आते 2 दिल्ली भी भाने लगा। शुरू के कुछ महीने बड़े आलस में गुजरे थे, पिछले कुछ समय से खूब घूमना फिरना शुरू कर दिया। 
यात्रायें इस वर्ष तमाम हुई प्रायः सरकारी दौरे लक्षद्वीप से गंगोत्री तक खूब कदम फिरे। 
नए साल के लिए दो चीजें मुख्य फोकस पर रहेंगी
1. फिटनेस
2. लेखन
इनके साथ 2 यह भी उम्मीद करता हूँ कि आप सब मित्रों, पाठकों, आत्मीय जनों से सम्बंध और ज्यादा मधुर, गहरे व सुस्थाई होंगे। 
नए लक्ष्यों को निर्धारित करें, जो भी करें पूरे जुनून, उत्साह व साहस के साथ जीवन के मजे लेते हुए करें।
सभी को नया साल मुबारक .. 
आपका ही 
आशीष , उन्नाव। 

शनिवार, 28 दिसंबर 2019

kavita 05: Hisab - Kitab

कविता 5 : हिसाब किताब 

जब मैं कहता हूँ कि
तुम्हें पाने से पहले खो चुका हूँ
तो अक्सर तुम नहीं समझ पाती
कि मेरे कथन का निहितार्थ,
दरअसल तुम ज्यादा दूर की 
सोचती ही नहीं,
नहीं बनाती हो लंबे चौड़े 
सुव्यवस्थित, सौदेश्य नियम
तुम बस वर्तमान में जीती हो
हर पल, हर क्षण का रखती हो
पूरा हिसाब - किताब । 

मैं बनाता हूँ योजनाएं,
भविष्य के लिए तमाम नियम 
सोचता हूँ हर पहलू को
विचार करता हूँ नियति व प्रारब्ध पर
मनन करता हूँ 
तुम्हारे होने या न होने पर
इसलिए मेरे पास वर्तमान का कोई
हिसाब किताब न होता है। 

प्रेम दोनों को है
बहुत गहरा,नियत व स्थायी
बस हिसाब किताब जरा सा
अलग थलग सा है। 

28 दिसंबर , 2019
©आशीष कुमार, उन्नाव, उत्तर प्रदेश।

गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

motivational : Rajesh kumar soni SDM in Haryana

#SDM
कभी 2 कुछ बड़ी सुखद खबरें अचानक मिलती है। कल रात में Rajesh Kumar Soni​​ का मैसेज मिला कि उनका हरियाणा सिविल सेवा में sdm पद पर चयन हो गया है। कुछ दिन पहले जब महिपाल ( UP SDM ) वाली पोस्ट लिखी थी तब इस तरह के विचार आये थे कि अभी एक्साइज एंड कस्टम विभाग के तमाम साथियों का चयन बाकी है, इनमें राजेश का भी ख्याल आया आया आया था। इनसे अहमदाबाद में परिचय हुआ था। वहाँ के सबसे करीबी 2 - 3 मित्रों में एक हैं। उनकी इस सफलता में लगभग हमेशा साथ रहा, बड़ी अफरा तफरी में इस बार और हरियाणा में पहली बार TRY किया था। इससे पहले आईएएस के तीन बार साक्षात्कार दे चुके थे और अब वो लगभग अपनी यात्रा खत्म मान चुके थे। पिछले कुछ टाइम से वो फील्ड पर थे, तैयारी के लिए वक़्त कम मिलता था। UPSC के बजाय अब स्टेट पर फोकस करने लगे थे। हरियाणा , UP में एग्जाम दे रहे थे। 
इंटरव्यू, मुख़्य परीक्षा हर चरण में बात होती रही, हमारे एक बैच मेट दीपक पुंडीर जोकि पहले हरियाणा सिविल सर्विस में थे, उनका सम्पर्क भी करवाया। मुझे जहां तक याद आता है हिंदी के लिए भी बात हुई थी कि व्यख्या आदि कैसे तैयार करूँ ? 

सफलता उनके लिए भी बड़ी सुखद आश्चर्य है , बताया कि मैं तो अपना रोल NO , लिस्ट में नीचे देख रहा था और लगा कि हुआ नहीं। अचानक मुझे अपना रोल NO , SDM वाली लिस्ट में दिखा। जब टाइम आता है तब ऐसा ही होता है। उन पर बात होती रहेगी। योग, अध्यात्म में उनकी भी गहरी रुचि हैं, हम तमाम संडे, अहमदाबाद के बाहर एक केंद में जाया करते थे। तमाम चीजें हैं बताने को। करीबी इतनी कि 31 दिसंबर 2018 को जब मैंने अहमदाबाद हमेशा के लिए छोड़ रहा था, आखिरी डिनर उनके घर ही हुआ था। अब हम दिल्ली, वो हरियाणा , सुबह 2 इतनी बढ़िया सकारात्मक खबर आप सभी से साझा कर बड़ी खुशी हो रही है। राजेश भाई, आपको बहुत 2 बधाई, आपकी सफलता मेरे तमाम पाठकों के लिए बड़ी प्रेरक है। 
- आशीष , उन्नाव । 

मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

motivational : Two aspirant


वो जो हमेशा  रोते  रहते हैं 

पिछले दिनों मैं घूमने के लिए दिल्ली से बाहर गया था. इस दौरान कुछ जाने अनजाने प्रतियोगियों से मिला। दो  लोगों का जिक्र करूँगा। एक मेरे बहुत पहले के परिचित थे। दरअसल वो मुझे जानते थे पर मुझे ठीक से उनका चेहरा याद न था। एक साथी के जरिये मुलकात हुयी। उन्हें तैयारी करते लम्बा वक़्त हो गया है काफी परेशान लग रहे थे। कुछ देर की बात में ही तमाम बार बोले - " बड़ी दिक्क्त है " उनका मतलब पैसों से था। मेरे हिसाब से वो 12 साल से तैयारी कर रहे है। 

मैंने पूछा कि आईएएस pcs  के अलावा भी फॉर्म डालते हो। बोले हाँ पर फोकस नहीं कर पाता , फोकस केवल आईएएस pcs पर ही रहता है। मैंने पूछा - लेखपाल वाला फॉर्म डाला था। बोले हाँ पर उसमे हो नहीं पाया। बातों 2 में बता डाला कि शिक्षक भर्ती में भी मेरी मेरिट कम रह गयी। कुछ और बाते हुयी यथा कि उत्तर लेखन कैसे करूँ , टिप्स बता दो। फिर घूम फिर कर वही बात बड़ी दिक्क्त है अब घर से पैसे लेने का मन न होता है। किसी मित्र का नाम का नाम लिया और वो बोले की वो थोड़ी बहुत हेल्प कर देता है। 

अब मुझसे रहा न गया। " भाई , आप इतने दिनों से तैयारी कर रहे हो , लेखपाल का एग्जाम निकलता नहीं पर फोकस आईएएस पर। पैसे का रोना क्यों रोते हो वो भी मेरे सामने----- इतने योग्य तो हो ही कि एक दो ट्यूशन पकड़ लो। कब तक दूसरे के सहारे बैठे रहोगे। दिक्क्त -२ बोलकर कब सहानुभूति लेते रहोगे दुनिया की। या तो तुम मेरी कहानी जानते नहीं या फिर तुम्हे रोने की आदत लग गयी  है। " तमाम चीजें बोलता रहा यह भी बताते हुए कि मुझे ऐसे लोगों पर बड़ा गुस्सा आता है। ऐसे लोगो तमाम एक्सक्यूज़ भी देंगे कि ट्यूशन में टाइम बहुत बर्बाद होता है। मेरी समझ नहीं आता कि 24 घंटे पूरी तरह से पढ़ाई पर फोकस बना रहता है क्या। मेरे ख्याल से यह बस भरम है वरना  ठीक से 10 घंटे काफी है। 

मैं देखता हूँ लोग दिल्ली इलहाबाद में वर्षो जमे रहेंगे और बोलेंगे कि बड़ी दिक्क्त है पैसों की। अगर आप दिल्ली अलहाबाद में हो तो फिर वो जो ऐसे शहरों तक नहीं पहुंच पाते है उनको क्या --- पर उन पर नजर कभी जाएगी ही नहीं। वो जो 18 के भी नहीं होते है और ट्यूशन पढ़ाने लगते है उनको दिक्क्त नहीं है ------. 

काफी दिनों बाद इस पोस्ट के जरिये प्रतियोगी साथियों से बात कर रहा हूँ और उक्त कहानी बताने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि भाई अपनी  क्षमता  भी जान लो।  बेहतर तो यही होगा कि छोटे २ एग्जाम से शुरुआत करो. दिवा स्वप्न देखने बंद कर दो, अब दिन बदल गए है। 

खैर दूसरे मित्र का भी जिक्र कर लेता हूँ - पूरी तरह से अजनबी , फेसबुक पर कभी कभार एक दो मैसेज से बात हुयी थी। अंतिम समय में दौड़ते भागते स्टेशन पहुँच गए मिलने के लिए। 25 की उम्र भी न हुयी है पर नेट करके एक डिग्री कॉलेज में पढ़ाते भी है और तैयारी भी कर रहे हैं। लगातार pcs mains लिख रहे है। अब आईएएस भी देना शुरू करना चाहते है। ऐसे लोगों से मिलना सार्थक भी रहता है। एक विशेष बात का जिक्र भी करना चाहुँगा कि दीक्षित जी ने एक बार भी अपने जनरल होने का रोना भी नहीं रोया ( इस पर ज्यादा बात न करूंगा पर तमाम बार इस तरह की भी सामने आ जाती हैं ). दिल से आशीर्वाद निकला कि तुम जल्द ही sdm बनने वाले हो। मुख्य परीक्षा के लिए भी उनको काफी अच्छे से समझना , बड़ा अच्छा लगा।  

तो दो लोग आपके सामने है आपका दिल क्या कहता है -- कौन बेहतर दावेदार लग रहा है। स्वाभिमानी व्यक्ति कभी भी अपने अभावों को सामने नहीं रखेगा। जितना मैंने देखा सुना भोगा पाया है उससे यही कहूंगा कि स्वाभिमानी व्यक्ति को सफलता मिलती है न कि रोने वालों को।  

17 दिसंबर 2019 ,
© आशीष , उन्नाव , उत्तर प्रदेश। 

सोमवार, 9 दिसंबर 2019

Story : A Vegetable seller in delhi

                धनिया पत्ती

बात कुछ पहले की है अब उतने महत्व की भी न रही पर लिख ही डालते है। कुकिंग बहुत बहुत पहले से करने लगा था, ज्यों 2 बड़ा हुआ त्यों 2 कुकिंग और ज्यादा व्यवस्थित होती गयी। धीरे 2 समझ आया कि धनिया पत्ते के बगैर तो कुछ भी बना हो स्वाद आता ही नहीं। कहने के मतलब कुछ भी हो धनिया पत्ते के अभाव में सब्जी न बनेगी।

पाठकों में पता नहीं कितने लोग सब्जी लेने जाते है या नहीं पर मुझे यह काम फिलहाल तो खुद ही करना पड़ता है। जब रूम पार्टनर थे तब यह उनकी जिम्मेदारी हुआ करती थी। सब्जी खरीदना भी बड़ी कला है पर मुझसे न होती है। अपन तो कपड़े भी 10 मिनिट में खरीद के निकलने वालों में है फिर सब्जी में कौन जांच परख में दिमाग लगाए। रुकते है वरना सब्जी खरीद शास्त्र लिख डालूंगा, धनिया पत्ते पर आते हैं।

पिछले दिनों मालूम है धनिया पत्ता के दाम कहाँ थे। 400 रुपये किलो यानी 10 रुपये की 25 ग्राम। आम तौर पर धनिया मिर्चा लोग फ्री में डलवा लेते हैं। उन दिनों भूल से भी ऐसी मांग नही की जा सकती थी। सब्जी वाले भड़क उठते थे। अगर आशंका होती कि फ्री में मांगेगा तो अक्सर बोल देते की है ही नहीं।

जैसा कि लोग कहते है कि विक्रेता गाड़ी देख के दाम बताते हैं, तमाम लोग इसी होशियारी में गाड़ी दूर खड़ी करके , फल खरीदने पीछे आते हैं। कुछ ऐसे भाव रहे होंगे जब मैंने उससे वैसी बात की।

उस दिन जब एक ठेले वाले से पूछा -
कि भाई धनिया पत्ती कैसे दिए ?
"40 की 100 ग्राम " उसने सर तक न उठाया , उसके सामने तमाम ग्राहक थे।
" यार कल तो उस ठेले वाले ने तो 30 रुपये में दिया था, क्या गाड़ी देख के दाम बता रहे हो ?" प्रसंगवश मैं रॉयल एनफील्ड से गया था।

" घर में दो दो खड़ी हैं...." ठेले वाले से कुछ ऐसे ही बड़बोले जबाब की ही उम्मीद मैंने की थी, आखिर मैं दिल्ली में खड़ा था।

" भाई, अब तीसरी भी जल्द खड़ी होने वाली है तेरे घर ..." मैंने मुस्कुरा कहा।
"क्या मतलब " सब्जी वाले ने अब सर उठाया।

" कुछ नहीं , तुम अमिधा ही समझ सकते हो, लक्षणा, व्यंजना तुम्हारे बस की बात नहीं" उस सब्जी वाले को, जिसके घर दो दो बुलट खड़ी थी, थोड़ा उलझन में डालकर आगे बढ़ आया।

उसको क्या खबर कि इस दिल्ली में किराए के पैसे से ऐश, मजे करने वालों के बीच ठेठ ग्रामीण परिवेश से आये भी लोग रहते है जो कितना ऊपर उठ जाए, उनसे बेफजूली खर्च चाहकर न हो पाती है।

( रेल सफर के बीच रचित )

9 दिसम्बर, 2019
© आशीष कुमार, उन्नाव, उत्तरप्रदेश।

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

Unnao : a sad truth

उन्नाव

उन्नाव फिर से चर्चा में है, मेरी व्यथा यह है कि यह हर बार अपराध के लिए ही राष्टीय स्तर पर चर्चा में आता है। कहते है जन्मभूमि स्वर्ग समान होती है, अपनी मिट्टी से बड़ा लगाव होता है। मेरी तमाम तरह से कोशिश होती है कि उन्नाव , पूरे भारत में बढ़िया चीजों के लिये जाना जाय। मेरी पोस्ट के अंत में हर बार जो उन्नाव का जिक्र देखते है उसके पीछे की मंशा उक्त ही है।
कलम व तलवार की धरती उन्नाव को न जाने कब अतीत वाला गौरव मिलेगा। प्रताप नारायण मिश्र, निराला, रामविलास शर्मा व चन्द्रशेखर आजाद की धरती को न जाने किसकी नजर लग गयी है। तमाम बार जब लोग पूछते है कि उन्नाव कहाँ पड़ता है तो कुछ भी बताओ तो लोग शायद ही समझ पाए पर अगर चर्चित रेप कांड का नाम ले लो या फिर वो बाबा के सपने में 1000 टन सोने की खुदाई वाली घटना का नाम ले लो फिर सब समझ जाते है। है न अजीब पर सत्य यही है। यह चीजें इसलिए कह रहा हूँ कि मुझे तमाम बार काफी बड़े मंचो व अति प्रतिष्ठित लोगों से मिलने पर बड़े गर्व से बताना होता है कि मैं उन्नाव से हूँ।
खैर
अच्छी उम्मीदों के साथ,

आपका ही
आशीष, उन्नाव।
7 दिसंबर, 2019

#unnao #Nirala #azad

That old days

शहर छूटा पर भाषा न छूटी

अहमदाबाद

2012 में जब अहमदाबाद में रहना शुरू किया तो भाषागत कुछ दिक्कतें आयी। जब हम घूमने को निकलते और किसी से कोई पता पूछते तो जो भी जबाब आता उसमें "चार रास्ता" का जिक्र जरूर आता जैसे कि अगले चार रस्ते से बाएं । कुछ दिनों में समझ आ गया कि अपने यहाँ के चौराहे को ही यहाँ चार रास्ता बोला जाता है। 7 साल हुए अब मेरे मुँह भी चार रास्ता ही निकलने लगा।

दिल्ली

कल मेट्रो माल से बाहर e रिक्शे वाले पूछा "  मेरी अकेडमी तक चलोगे"
"किधर" रिक्शे वाले ने पूछा ।
" वो आगे जो डीएमसी ऑफिस वाला चार रास्ता है , उसी के पास "
" चार रास्ता ? " रिक्शे वाला बड़े कंफ्यूजन में दिखा।
" अरे भाई , यही अगला चार रास्ता ... अरे यार यही अगला चौराहा " दिमाग मेरा शून्य सा हो रहा था। मन से चौराहा ही निकला पर शब्दों में चार रास्ता।
मॉरल ऑफ द स्टोरी - शहर पीछे छूटते रहते हैं पर भाषा साथ जुड़ी रहती है।

7 दिसंबर, 2019
© आशीष, उन्नाव, उत्तर प्रदेश।

सोमवार, 2 दिसंबर 2019

Poem 2 : Uniqueness

अद्वितीयता

अपनी कुछ पुरानी, नाममात्र की सीमित उपलब्धिओं पर,
छाती फुलाये जाना,
चलना चौड़े से अकड़ कर
दोहराना उन्हीं सतही चीजों को
जतलाना जैसे कि बुद्धत्व मिल गया हो
हमेशा आतुर सुनने को कुछ प्रसंशा के शब्द
या कि अपना नाम लिया जाय महफिलों में बार बार।

बैठकर उसके सामने ,बोलते रहना उन्हीं चीजों पर
जो वो पहले भी सुन  चुकी है कई बार,
हमेशा इस उम्मीद में कि वो हर बार
अपनी आँखों को विस्मय में भरकर बोलेगी
" आप गजब के इंसान हैं " और दे देगी
अपने नाजुक हाथ आपके हाथों में।

नहीं , कतई नहीं, जरा भी फर्क नहीं पड़ता दुनिया को,
आपकी सीमित, पुरानी नाममात्र की
उपलब्धिओं  से,
अद्वितीयता भला कहीं दोहराने से आती है ।

3 दिसंबर, 2019
©आशीष कुमार, उन्नाव उत्तर प्रदेश।

गुरुवार, 7 नवंबर 2019

Three years in college

कॉलेज के वो तीन साल ।

हम वहाँ से आते है मतलब जहां आपको सब कुछ खुद ही करना है, गाइडेन्स नाम की कोई चीज नही होती है। बहुत समय से सोच रहा हूँ कि इस पर लिखू पर लगता था कि कॉलेज की आलोचना होगी पर कभी न कभी लिखना ही था।

मैंने भी तमाम लोगो की तरह की बीएससी की है। गणित, भौतिक विज्ञान व कंप्यूटर एप्लिकेशन में। स्वीकार करना कठिन है पर सच है कि तीनों ही में मुझे कुछ भी नही (स्नातक स्तर का ) आता। हमने ऐसे कॉलेज में एडमिशन लिया था जहाँ  वर्षो से एक विकट समस्या चली आ रही थी। अध्यापक क्लास इस लिए नही लेते थे क्योंकि उन्हें शिकायत होती कि छात्र पढ़ने ही नही आते और छात्रों का कहना था कि अध्यापक पढ़ाने नहीं आते इसलिए वो क्लास नही जाते । ऐसे में  होता यह कि अध्यापक अपने कॉमन रूम में बैठकर देश दुनिया का चिंतन करने में , समाज के नैतिक पतन, नेताओं की मक्कारी पर अपना कीमती समय देते। इससे उन्हें सन्तोष रहता कि वो हराम की कमाई नहीं ले रहे है। दूसरी ओर छात्र अपनी युवा ऊर्जा अन्य जगहों पर लगाते। हम जैसे कुछ जो गांव देहात से आते अपना ट्यूशन पढ़ाने जैसे कार्यों में लग जाते ताकि घर पर बोझ न बने।

मैं पूरे साल  साईकल लेकर घर 2 ट्यूशन पढ़ाता रहता फिर एग्जाम के समय दुपतिया ( अलग 2 नामों से बिकती है जैसे कानपुर यूनिवर्सिटी में इजी नोट्स चलते है ) जैसी पतली किताबें पढ़कर पेपर देने जाते। पहले साल तो दुपितया लिया पर अगले साल वो भी न ली तब भी पास हो गया यह मेरे लिए भी खुद रहस्य है आखिर कैसे ? । तीसरे साल प्रैक्टिकल होते हैं ।
मेरे पिता जी को कुछ चीजों का बढ़िया ज्ञान था। उनकी सलाह के अनुसार एक गुरु जी के घर प्रैक्टिकल वाले दिन सुबह 2 देसी माठा ( छाछ ) , कुछ ताजे करेले लेके दे आया। उनका बेटा निकला तो उसको बोला कि पापा से बोल देना कि आप का स्टूडेंट हूँ नाम आशीष है।

इसी तरह से कंप्यूटर के प्रैक्टिकल वाले सर को मधुशाला की प्रति दी। ( यह सलाह एक नेक मित्र की थी।) यहाँ मेरे टीचर भड़क गए बोले कि यह बिल्कुल गलत है पर प्रैक्टिकल वाले सर ने किताब रख ली यह कहते हुए कि लड़कें की भावना समझो। हो सकता है कि मैंने उन्हें यह भी बोला हो कि sir मैं लेखन करता हूँ आदि आदि ) । प्रैक्टिकल के नाम पर 100 -100 रुपये भी जमा कराए गए थे। अब यह मत कहना कि आपने कभी नही जमा किये प्रैक्टिकल के नाम पर रुपये।

गणित में 45 में 42 अंक दिए गए। 40 से कम किसी को कम नही मिले थे। 2 अंक गुरु की सेवा के थे या नही कह पाना मुश्किल है। कंप्यूटर वाले सर  ने कम अंक दिए थे। इसमें मुँह दिखाई ज्यादा चली  थी। मेरी मधुशाला काम न आई। बाद के वर्षों में मुझे इस बात का बेहद अफसोस होता रहा कि मैंने तीन सालों में एक पन्ने (बीएससी से जुड़ी )की भी पढ़ाई न की। न तो मुझे किसी बुक का नाम पता था और न ही कौन 2 से पेपर होते हैं। हालांकि इस धक्का परेड डिग्री के विषयों की उपयोगिता कभी समझ न आई। अंकगणित मेरी बहुत अच्छी थी , इंग्लिश में सर के बल मेहनत की। gk में बचपन से बहुत मजा आता था। बस इन्ही के दम पर तमाम नौकरी मिली।

यह कड़वी सच्चाई है पर कुछ नामचीन यूनिवर्सिटी को छोड़ दे यथा इलाहाबाद / प्रयागराज, BHU, DU तो सब जगह की स्थिति ले देकर उक्त सी है। और नामचीन जगहों पर पढ़ने वाले लोग पूरे देश के ग्रेजुएट का कितना परसेंट होंगे। माफ करना यह 15 साल पुरानी बात है। हो सकता अब काफी बदलाव हो गया हो। क्योंकि अब देश में बदलाव की बयार आयी है हो सकता हो अब उन कॉलेज में उस वर्षो से चली आ रही समस्या का समाधान हो गया हो।

© आशीष कुमार, उन्नाव, उत्तर प्रदेश ।

7 नवंबर 2019, दिल्ली

गुरुवार, 19 सितंबर 2019

Story of a disciplined man


एक सिद्धांतप्रिय व्यक्ति 

आप अगर पहली बार पढ़ेंगे तो शायद आपको अजीब लगे पर यह मेरे लिए नया नहीं है। इससे पहले इसी तरह की तीन घटनाएं लिख चुका हूँ। 

यह घटना अनायास ही पता चली थी। यह अपने पूर्व विभाग यानि कस्टम एंड एक्साइज , अहमदाबाद  की बात है. एक दिन एक सीनियर से एक पुराने अधीक्षक सर के बारे  में बड़ा दुखद पता चला।  

जहाँ मेरी सबसे पहले पोस्टिंग हुयी थी। वहाँ से बगल की रेंज में मेरा ट्रांसफर हो गया था। उस बिल्डिंग में एक डिवीज़न व 5 रेंज थी। मैं पहले से पांचवी में चला था। पहली रेंज में नए साहब आये उनके बारे में पहले अपने साथी मित्र से बातचीत किया करता था , बाद में सीधा सर से ही बात होने लगी थी। बड़े सैद्धांतिक व्यक्ति थे। उनके अपने बड़े गहरे विचार हुआ करते थे। शायद उनके बेटे ने  iit का एग्जाम दिया था , कभी कभी वो मुझसे रिजर्वेशन की बात किया करते थे कि बड़ा गलत है , मेरे बेटे के इतने नंबर है पर उसका न हुआ , अमुक कटैगरी में इतने पर ही हो गया। मैं ऐसे मसलों पर कभी तर्क करने की भूल नहीं करता हूँ , हमेशा ही उनसे सहमत रहता था। इसलिए वो खुश रहते थे। एक दिन बताया कि मेरा बेटा बिल्डिंग के नीचे वाले कार स्कूल में कार सीखने आता है। मैंने पूछा कौन सी  कार है आपके पास , बोले अभी कोई न है जब सीख लेगा तो कार भी ले लूंगा। मुझे थोड़ा अजीब ही लगा क्योकि विभाग में उनकी पोस्ट पर नौकरी करने वाले लोग आम तौर पर पूरी तरह से सेटल होते थे , कार तो बड़ी मामूली बात थी।  

खैर , अब कई सालों बाद उनके व्यक्तित्व की तमाम बातें याद नहीं आ रही है पर इतना याद है कि अगर उनके केबिन में जब भी जाना हुआ तो पकड़ कर बैठा लेते थे और अक्सर कोई न कोई मुद्दा उठाकर गरमा गर्म बहस छेड़ दिया करते थे। एक बात याद आती है। उनका जो इंस्पेक्टर था वो मेरा सबसे पहला कलीग था। हम दोनों ही इंस्पेक्टर के और पर पहली रेंज में कुछ दिन साथ रहे थे। ये जो साथी इंस्पेक्टर थे , वो भी बड़े दुर्लभ किस्म के इंसान थे। उनके बारे में पूरा का पूरा एक ग्रन्थ लिखा जा सकता है आज थोड़ा इशारा करके बढ़ते है। 

ये इंस्पेक्टर बिहार से थे , पहले मुंबई में टैक्स असिस्टेंट थे। उनको देखकर मुझे बिहार से जुडी वो कहानियाँ /लड़के याद आते जो रात दिन पढ़ाई करके अपनी किस्मत लिखते है। अगर आप उनसे मिले तो सोचेंगे कि यह इंसान किस समय में जी रहा है। बहुत ज्यादा ही सीधे , मासूम, मंद ( कार्य करने की गति ) व पिछड़े ( इसे जाति से न जोड़े , वो ज़माने से बहुत पीछे चल रहे थे ) थे। ऊपर जिन साहब की बात की है वो इनको तमाम तरह के काम सौंपते। जिसे मुझे याद आ रहा है कि एक बार उन्होंने इनसे हिंदी से जुडी रिपोर्ट तैयार करने को बोली। यह फील्ड के लिहाज से रेगुलर कार्य न था। अब इंस्पेक्टर साहब ने धीरे धीरे काम करना शुरू किया और कई हफ्ते तक उसी में व्यस्त रहे। कई साल पुरानी फाइल से हिंदी में लिखे  लेटर निकाले गए और उनका क्रमवार विवरण तैयार किया गया। दरअसल उस रेंज में कार्य न के बराबर था , इसलिए बड़े साहब इस तरह के कार्य खोजते व इंस्पेक्टर साहब अपनी मंथर गति से कार्य करते रहते। अन्य प्रकरण याद नहीं , यह भी याद आ रहा है कि उन्हें यह पता था कि मैंने upsc का इंटरव्यू दे रखा है, इसलिए वो मुझे तमाम तर्क करना चाहते थे. 

ऊपर जो अनायास वाली बात लिखी है वो इसलिए है। उस विभाग में अंतिम समय मैं ऑडिट में पोस्टेड था। वो मंथर गति वाले इंस्पेक्टर साहब भी साथ ही पोस्टेड थे। उन सीनियर से बातों बातों में पुराने साहब का जिक्र छिड़ा तो सर ने बताया कि उन्होंने तो सुसाइड कर लिया था। मैं सन्न रह गया। मेरे सामने उनका चेहरा कौंध गया। सर ने बताया कि एक रात (शायद सर्दियों की ) सुबह ४ बजे अपनी स्कूटर पर पत्नी के साथ वो साबरमती नदी ( अहमदाबाद ) के पुल पर गए, स्कूटर एक तरफ खड़ी करके पति पत्नी ने छलांग लगा दी। मेरी तरह आप सोच रहे होंगे वजह क्या रही होगी। सर के अनुसार अपने बच्चों की अनुशासनहीनता , बात न सुनने की वजह।  तमाम बार वो पढ़ाई -लिखाई को कहते पर शायद बच्चों को उनकी बात का ज्यादा फर्क नहीं पड़ता था। शायद उनके पैतृक निवास में माँ ( निश्चित नहीं ) आदि बीमार रहा करती थी। यही  मिश्रित कारण थे।

आप भी हैरान होंगे पर मैंने बाद में धीरे धीरे यह महसूस किया कि उक्त  बातें ही रही होंगी। कितनी विडंबना की बात है , संतान अपने माता पिता को कितना दुःख देती है , यह शायद ही वो कभी समझ सके। आत्महत्या से जुड़ी यह चौथी कहानी है जो पिछले दिनों अचानक याद आयी और रह रहकर बाध्य करती है कि इसको शब्दरूप में जरूर ढालों।  

( कृपया उक्त विवरण को काल्पनिक रूप में लिया जाय , किसी भी  जीवित या मृत व्यक्ति से इसका कोई लेना देना नहीं है।)

दिनांक - 19 सितंबर 2019                                                                                          ©    आशीष कुमार , 
                                                                                                                               उन्नाव उत्तर प्रदेश।

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